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समाधि में। शंकारहित — जो निःशंक हुआ ।
निःशंको युक्तमानसः।
और जिसका मन युक्त हुआ ।
ये दो बातें समझना। एक तो हमें अपने होने पर ही शंका है। भला हम कितना ही कहते हों कि मैं आत्मा हूं, कि मेरी कोई मृत्यु नहीं, मगर हमें इस पर भरोसा नहीं। हम कहते जरूर हैं; कहते भी हैं, मान भी लेना चाहते हैं। भरोसा करना चाहते हैं, भरोसा है नहीं । भरोसा करना चाहते हैं क्योंकि मौत से डर लगता है । मृत्यु से घबड़ाहट होती है। तो हम मान लेते हैं, आत्मा अमर है। जहां हम पढ़ते हैं किसी शास्त्र में, आत्मा अमर है - हिम्मत आती है कि ठीक; होनी चाहिए आत्मा अमर । मगर निःशंक नहीं है यह बात ।
मैं एक पड़ोस में बहुत दिनों तक रहा। एक घर में कोई मर गया तो मैं गया। वहां मैंने देखा कि एक दूसरे पड़ोसी समझा रहे हैं लोगों को कि क्या रोते हो, क्या घबड़ाते हो ? किसी की पत्नी मर गई है, वे समझा रहे हैं कि आत्मा तो अमर है । मैं बड़ा प्रभावित हुआ कि यह आदमी जानकार होना चाहिए। संयोग की बात, तीन-चार महीने बाद उनकी पत्नी चल बसी । पत्नियों का क्या भरोसा, कब चल बसें! तो मैं बड़ी उत्सुकता से उनके घर गया कि अब तो यह आदमी प्रसन्नता से बैठा होगा, या खंजड़ी बजा रहा होगा। पत्नी को विदा दे रहा होगा। लेकिन वे रो रहे थे सज्जन । मैंने कहा, भई बात क्या है ? दूसरे की पत्नी मर गई तब तुम समझा रहे थे, आत्मा अमर है। वे कहने लगे अपने आंसू पोंछकर, अरे ये समझाने की बातें हैं। जब अपनी मर जाये तब पता चलता है।
पत्नी मर गई थी पहले, वे आ गये और
मैं बैठा रहा। थोड़ी देर बाद देखा कि जिन सज्जन इनको समझाने लगे कि क्या रोते हो ? आत्मा तो अमर है।
ऐसा चलता लेन-देन । पारस्परिक सांत्वना ! तुम हमको समझा देते, हम तुम्हें समझा देते। न तुम्हें पता, न हमें पता। लोग मान लेते हैं। लेकिन मान लेने का अर्थ निःशंक हो जाना नहीं है। मान तो हम वही बात लेते हैं हम मान लेना चाहते हैं ।
इस फर्क को खयाल में रखना। यह देश है, इस देश में आत्मा की अमरता का सिद्धांत सनातन से चला आ रहा है। और इस देश से ज्यादा कायर देश खोजना मुश्किल है। अब यह बड़े आश्चर्य की बात है। यह होना नहीं चाहिए। क्योंकि जिस देश में आत्मा की अमरता मानी जाती हो, उस देश को तो कायर होना ही नहीं चाहिए । लेकिन पश्चिम के लोग आकर हुकूमत कर गये, जो आत्मा को नहीं मानते, नास्तिक हैं। जो मानते हैं कि एक दफे मरे तो मरे; फिर कुछ बचना नहीं है । वे आकर आत्मवादियों पर हुकूमत कर गये । और आत्मवादी डरकर अपने-अपने घर में छिपे रहे। वहीं बैठकर अपने उपनिषद पढ़ते रहे कि आत्मा अमर है ।
आत्मा अमर है तो फिर भय क्या है? जिस आदमी को निःशंक रूप से पता चल गया आत्मा अमर है, उसके तो सब भय निरसन हो गये । उसके तो सारे भय गये। अब क्या भय है ? अब तो मौत भी आये तो कोई भय नहीं है। ऐसे आदमी को परतंत्र तो बनाया नहीं जा सकता। ऐसे देश को तो परतंत्र बनाया ही नहीं जा सकता जो मानता हो, आत्मा अमर है।
लेकिन मामला कुछ और है। हम मानते ही इसलिए आत्मा को अमर हैं कि हम कायर हैं। हममें
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5