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हर पीड़ा वेश्या बन जाती हर आंसू आवारा होता
खयाल करो, बुद्धि वेश्या है। उसका कोई भरोसा नहीं। कभी यह कहती, कभी वह कहती है। के बुद्धि से कभी कोई निश्चय होता ही नहीं । बुद्धि आवारा है। बुद्धि पतिव्रता नहीं है । कभी सुबह साथ, कभी शाम के साथ। कभी एक, कभी दो - बुद्धि डोलती ही रहती है। बुद्धि डावांडोलपन है। बुद्धि कभी थिर नहीं होती। तो बुद्धि एक में से भी दो अर्थ निकाल लेती है, तभी तो डोल सकती है; नहीं तो डोल न सकेगी।
एक और भी ढंग है जीवन को देखने का, वह है प्रेम; वह है हृदय । तुम मुझे सुनते हो, तुम बुद्धि से सुनोगे तो तुम्हें रोज-रोज विरोधाभास मिलेंगे। तुम्हें पंक्ति पंक्ति पर विरोधाभास मिलेंगे। तुम्हें कदम-कदम पर, पग-पग पर विरोधाभास मिलेंगे। अगर तुमने बुद्धि से सुना तो तुम विक्षिप्त हो जाओगे। एक और ढंग है प्रेम से सुनने का । प्रेम का अर्थ है, जहां दो एक हो जाते हैं। जहां सब विरोधाभास खो जाते हैं। जहां एक स्वर बजता, एक नाद रह जाता। जहां एक ही अर्थ गूंजता ।
और मैं एक ही बात कह रहा हूं- कितने ही ढंग से कहूं और कितने ही शब्दों में कहूं। कभी भक्ति के नाम से कहूं, कभी ज्ञान के नाम से कहूं, कभी ध्यान के नाम से, कभी योग के नाम से, लेकिन मैं एक ही बात कह रहा हूं। तुमने अगर प्रेम से सुना तो तुम उस एक को ही सुन पाओगे। और तब तुम्हारे सामने अर्थ जैसे होने चाहिए वैसे प्रकट होंगे।
अब सीधी-सीधी बात है कि मैं हर बार कहता हूं, हारे को हरिनाम । और कितनी बार तुमसे मैंने कहा है, निर्बल केबल राम और कितनी बार तुमसे मैंने कहा है, भिखारी की तरह मत जाना, सम्राट की तरह जाना । तुमने काश, इसे हृदय से सुना होता तो तुम्हारे सामने अर्थ प्रगट हो जाता। जो अर्थ मैंने तुमसे अभी कहा वह तुम भी खोज ले सकते थे अगर प्रेम से सुना होता। लेकिन तुम सुनते हो खोपड़ी से । तुम तैयार ही रहते हो कि कोई चीज ऐसी दिखाई पड़ जाये जिसमें विरोध है। तो फिर तुम जरा भी चेष्टा नहीं करते सेतु बनाने का, कि दोनों के बीच कोई सेतु जरूर होगा। जब मैंने कहा है तो जरूर कोई सेतु होगा।
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सेतु को खोजें । सेतु को खोजने में लगो । पहले अपने भीतर सेतु को खोजो। जब न खोज सको तब पूछो। और मैं तुमसे कहता हूं, सेतु तुम धीरे-धीरे खोजने लगोगे और तुम्हें विरोध समाप्त होने लगेंगे। तुम्हें मेरी असंगतियों में संगति का स्वर सुनाई पड़ने लगेगा। क्योंकि असंगति हो नहीं सकती। मैं जहां से बोल रहा हूं वहां एक का ही वास है। कभी एक रंग में ढालता, कभी दूसरे रंग में ढालता। कभी एक गीत में गुनगुनाता, कभी दूसरे गीत में गुनगुनाता ।
ये भेद शब्दों के होते हैं । मेरे भीतर एक का ही निवास है । वही एक अनेक शब्दों में प्रगट हो रहा है। इसे तुम स्मरण रखो। इसे बार-बार भूल मत जाओ। और हर विरोध के बीच जब तुम्हें विरोध दिखाई पड़े तो बड़े ध्यान को पुकारो। शांत होकर बैठो, खोजो, कहीं सेतु होगा। और तुम सेतु को पा लोगे। और उस सेतु को पा लेने से तुम्हारे भीतर एक और तरह की समझ का दीया जलेगा, जिसको हम प्रेम कहते हैं।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5