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कोई गोरी कोई काली कोई बड़ी कोई छोटी!
इस खाने से उस खाने तक चमराने से ठकुराने तक खेले काल खिलाड़ी सबकी गहे हाथ में चोटी! साधो, हम चौसर की गोटी!
कोई पिटकर कोई बसकर कोई रोकर कोई हंसकर सभी खेलें ढीठ खेल यह चाहे मिले न रोटी!
कभी पट हर कौड़ी आवे कभी अचानक पौ पड़ जावे नीड़ बनाये एक फेंक तो दूजी हरे लंगोटी!
एकेक दांव कि एकेक फंदा एकेक घर है गोरखधंधा हर तकदीर यहां है जैसे कूकर के मुंह बोटी!
बिछी बिछात जमा जब तक फड़ तब तक ही यह सारी भगदड़ फिर तो एक खलीता सबकी बांधे गठरी मोटी!
साधो, हम चौसर की गोटी! जैसे ही दिखाई पड़ना शुरू होता है, जो भीतर छिपा है, जिसका असली स्पंदन है, जो वस्तुतः हमारे माध्यम से जी रहा है, तो हम चौसर की गोटी हो जाते हैं। कोई छोटी, कोई बड़ी, कोई गरीब, कोई अमीर, कोई ज्ञानी, कोई अज्ञानी; लेकिन हम चौसर की गोटी हो जाते हैं। खेल किसी और का चल रहा है, बिछात किसी और ने बिछायी है। हारेगा कोई, जीतेगा कोई। हम तो चौसर की गोटी हैं। न हमारी कोई हार है, न हमारी कोई जीत है।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5