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लेकिन जीसस कहते हैं, यह असंभव भी शायद किसी तरकीब से संभव हो जाये। सुई के छेद से भी ऊंट निकल जाये, लेकिन ऐ अमीर लोगो! तुम प्रभु के राज्य में प्रवेश न पा सकोगे। कारण? कारण कि तुम अमीर ही नहीं हो। कारण कि तुम तो अत्यंत दीन हो, अत्यंत दरिद्र हो। तुम्हारे भीतर तो कुछ भी नहीं, खालीपन, सूखा-सूखा मरुस्थल। एक भी मरूद्यान नहीं तुम्हारे भीतर। तुम भीतर तो कोरे-कोरे। तुमने तो भीतर की संपदा जगाई ही नहीं।
दृश्य के पीछे जो भागता रहेगा, दृश्य तो मिलेंगे ही नहीं और द्रष्टा खो जायेगा। यह दौड़ बड़ी महंगी है। और अधिकतर लोग इसी दौड़ में हैं। बहुत बार अनुभव में भी आता है कि जिसकी तलाश करते थे, जब मिलता है तो कुछ भी मिलता नहीं। लेकिन फिर मन के जाल बड़े गहरे हैं। मन कहता है : शायद इस बार चूक गये, अगली बार हो जाये। फिर वासनायें आ जाती हैं, फिर नये प्रलोभन आ जाते हैं।
फिर आ गये राजाधिराज चाबुक घुमाते सफेद घोड़े दौड़ाते, सूरज का मुकुट झिलमिलाते फिर बच्चे फूल बीनने लगे क्या मैं कभी जाड़े की सुगंध से छूटूंगी नहीं? बंधी ही रहूंगी गरमाहट की इच्छा से? हर बार हर साल धूप की भाप बर मोम-सी घुलूंगी? खोदूंगी स्पर्श-निरपेक्ष स्व? इस असहायता से मुक्त हो जाऊं, विदेह हो आऊं फिर आ गये राजाधिराज चाबुक घुमाते
सफेद घोड़े दौड़ाते, सूरज का मुकुट झिलमिलाते? वासना पीछा नहीं छोड़ती। कई बार लगता है, कई बार गहन अभीप्सा उठती है, कब मुक्त हो जाऊं? कब छूटे यह जाल? कब छूटे यह जंजाल? कब होगी मुक्ति? कब होगा खुला आकाश? जहां कोई मांग परिधि न बनेगी, और जहां कोई वासना दूषित न करेगी, जहां चैतन्य का दीया निधूम जलेगा, जहां भिखमंगापन जरा भी न होगा, जहां अपने में तृप्ति परिपूर्ण होगी और उससे बाहर जाने की कोई कल्पना भी न उठेगी, जहां स्वप्न थरथरायेंगे नहीं, जहां अकंप होगी चैतन्य की शिखा-कब आयेगा वैसा क्षण? ऐसा बहुत बार बोध भी आता, लेकिन फिर आ जाते वासना के घोड़े दौड़ाते।
फिर आ गये राजाधिराज चाबुक घुमाते? फिर पकड़ लेता मन। फिर कोई कहता है, एक बार और। थोड़ा और दौड़ लो।
टालस्टाय की बड़ी प्रसिद्ध कहानी है : कितनी जमीन एक आदमी को जरूरी है? एक संन्यासी, एक घुमक्कड़, एक साधारण सुखी परिवार में ठहरा। साधारण सुखी परिवार, खाता-पीता, मस्त था। सीधे-सादे लोग थे। लेकिन इस घुमक्कड़ ने रात को कहा, तुम क्या कर रहे हो यहां? तुम जिंदगी भर इसी छोटी-सी जमीन में खेती-बाड़ी करते रहोगे, कभी अमीर न हो पाओगे।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5