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जब मैं गया आखिरी वक्त उनकी आखिरी सांस टूट रही थी, उनको मिलने गया तो उन्होंने जो
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आखिरी बात कही, वह यही कही। आंख खोलकर उन्होंने कहा कि देख, अब मैं तो चली । तू एक बात का वचन दे दे कि महात्माओं से मत उलझना । आखिरी मरते वक्त ! उनको एक ही फिकर लगी रही। क्योंकि बचपन में उनके पास था तो उनके पास बड़ी शिकायतें आतीं कि मैंने महात्मा से विवाद किया, महात्मा नाराज हो गये, कि उन्होंने डंडा उठा लिया, कि सब सभा गड़बड़ हो गई। और इस बच्चे को घर में रखो। और मैंने कभी कोई गलत सवाल नहीं पूछा। सीधी बात थी कि ब्रह्मज्ञान में सेठजी कैसे आते हैं ?
लेकिन तुम्हारे गणित एक जैसे हैं । तुम्हारा महात्मा और तुम मौसेरे चचेरे भाई हैं।
एक गणित के अध्यापक नाई के पास पहुंचे और पूछा नाई से, क्या हमारी हजामत कर सकते हो ? नाई ने कहा, महाराज, क्यों नहीं ? दूसरों की हजामत करना ही मेरा धंधा है। करूंगा । गणित के शिक्षक ने पूछा, हजामत का कितना लेते हो ? नाई ने कहा, इसकी कुछ न पूछिये महाराज। जैसा काम वैसा दाम । एक रुपये से लेकर दस रुपये तक की बनाता हूं। गणित के शिक्षक ! उन्होंने कहा, अच्छा तो एक रुपयेवाली बनाओ। नाई ने बाल काटे, हजामत बना दी एक रुपयेवाली । और उसने कहा, लीजिये बन गई। निकालिये रुपया ।
गणित के शिक्षक ने कहा, एक रुपयेवाली बन गई तो अब दो रुपयेवाली बनाओ। अब जरा नाई घबड़ाया। अब तो हजामत बन चुकी । अब वह दो रुपयेवाली कैसे बनाये ? और गणित के शिक्षक ! उन्हें तो गणित का हिसाब । यह सुनकर जब नाई घबड़ा गया तो गणित के शिक्षक ने कहा, अरे घबड़ाता क्यों है, अबे घबड़ाता क्यों है? अभी तो दस रुपयेवाली तक बनवाऊंगा ।
आदमी के गणित होते हैं।
मेरे स्कूल में जो ड्राइंग के शिक्षक थे वे किसी अपराध में पकड़ लिये गये। छह महीने की सजा हो गई। जब वे छूटने को थे तो मैं भी उनको जेल के द्वार पर लेने गया । प्यारे आदमी थे और ड्राइंग
बड़े थे। मैंने उनसे पहली ही जो बात पूछी निकलते ही उनके जेल से कि कैसा रहा जेल में ? सब ठीक-ठाक तो रहा? उन्होंने कहा, और सब तो ठीक था लेकिन जेल का कमरा - नब्बे डिग्री के को नहीं थे ।
नब्बे डिग्री के कोने ! वे बड़े पक्के थे उस मामले में । कुल बात जो उनकी खोपड़ी में आयी जेल में छह महीने रहने के बाद, वह यह आयी कि जो जेल की कोठरी के कोने थे वे नब्बे डिग्री के नहीं थे। ड्राइंग के शिक्षक! वह नब्बे डिग्री का कोना होना ही चाहिए। वह उनको बहुत अखरा । अब मैं जानता हूं कि छह महीने उनको जो सबसे बड़ा कष्ट रहा होगा वह यही रहा कि ये जो कोने हैं, नब्बे डिग्री के नहीं हैं। जेल की तकलीफ न थी। जेल तो सह लिया, मगर नब्बे डिग्री के कोने न हों यह उनको बर्दाश्त के बाहर रहा होगा। चौबीस घंटे यही बात उनको सताती रही होगी।
आदमी अपने ढंग से चलता, अपने ढंग से सोचता । साधारण आदमी की भाषा यही है । साधारण आदमी परस्त्री में उत्सुक है । साधारण आदमी अपनी स्त्री में तो उत्सुक है ही नहीं। अपनी स्त्री से तो ऊबा हुआ है। अपनी स्त्री का तो सोचता है, किस तरह इससे छुटकारा हो । दूसरे की स्त्री में रस है । दूसरे की स्त्री बड़ी मनमोहक मालूम होती है। जो अपने पास है वह व्यर्थ मालूम पड़ता है, जो दूसरे
अपनी बानी प्रेम की बानी
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