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________________ • जिन्होंने जाना है—ज्ञानी-उन्होंने ही समस्त निराधार मान्यताओं, आग्रहों, पक्षपातों का मूलोच्छेद कर दिया है। ये अनर्थ की जड़ें हैं। काश, दुनिया में लोग अपने अज्ञान को स्वीकार करें और झूठे आग्रह न करें, तो खोज फिर शुरू हो, फिर झरना बहे, फिर हम यात्रा करें, फिर सत्य की...। लेकिन कोई हिंदू बनकर बैठा है, कोई मुसलमान बनकर बैठा है। कोई कुरान पकड़कर बैठा है, कोई गीता पकड़कर बैठा है। न तुम्हारा गीता से कुछ संबंध है, न कुरान से कुछ संबंध है। न तुम कृष्ण को पहचानते, न तुम मोहम्मद को; लेकिन तलवारें निकाल लेते हो। बड़ा अनर्थ हुआ है। मंदिर-मस्जिद के नाम पर जितने पाप हुए हैं, किसी और चीज के नाम पर नहीं हुए। और पंडित-पुरोहितों ने तुम्हें जितना लड़वाया उतना और किसने लड़वाया? जमीन खून से भरी। और मजा यह है कि भाईचारे की बातें चलती हैं। प्रेम के उपदेश दिये जाते और प्रेम के नाम पर युद्ध पलते। अष्टावक्र बड़ी महत्वपूर्ण बात कहते हैंनिराधारा ग्रहव्यग्रा मूढ़ाः संसारपोषकाः। एतस्यानर्थ मूलस्य मूलच्छेदः कृतो बुधैः।। वे जो बुद्धपुरुष हैं, जाग्रत, ज्ञानी, उन्होंने इस अनर्थ के मूल को काटा है। उन्होंने कहा है, अनाग्रह; आग्रह नहीं, हठ नहीं, पक्षपात नहीं। खोजी की दृष्टि, खुला मन, खुले द्वार, खुली खिड़कियां, खुले वातायान। आने दो हवाओं को, लाने दो खबर। आने दो सूरज की किरणों को, लाने दो खबर। परमात्मा है। तुम जरा द्वार तो खोलो! __तुम द्वार-दरवाजे बंद किये भीतर बैठे हिंदू-मुसलमान बने, आस्तिक-नास्तिक बने। दरवाजा खोलते ही नहीं। परमात्मा द्वार पर दस्तक देता है तो तुम कहते हो, होगा हवा का झोंका। हवा का झोंका नहीं है; क्योंकि सभी झोंके उसी के हैं। परमात्मा की पगध्वनि सुनाई पड़ती है तो तुम कहते हो, होंगे सूखे पत्ते। हवा खड़खड़ाती होगी। कोई सूखी पत्तियां नहीं खड़खड़ा रही हैं, क्योंकि सभी पत्ते उसी के हैं—सूखे भी और हरे भी। ये उसके ढंग हैं आने के। कभी सूखे पत्तों की आवाज में आता, कभी हवा के झोंके में आता। कभी बादल की तरह घुमड़ता। कभी वर्षा की तरह बरसता। कभी चांद में, कभी सूरज में, हजार-हजार उपाय से आता। तुम जरा आंख खोलो।। आग्रह मत रखो। सिद्धांतों की आड़ में मत बैठो। सिद्धांतों को फेंको। दो कौड़ी के हैं सिद्धांत। सत्य को चुनो। और सत्य को चुनने का एक ही उपाय है-अनुभव। अनुभव एकमात्र आधार है, और कोई आधार नहीं। तर्क सिद्ध नहीं कर सकता, सिर्फ अनुभव ही सिद्ध करता है। अनुभव स्वयंसिद्ध है। 'अज्ञानी जैसे शांत होने की इच्छा करता है, वैसे ही वह शांति को नहीं प्राप्त होता है। लेकिन धीरपुरुष तत्व को निश्चयपूर्वक जानकर सर्वदा शांत मनवाला है।' न शांतिं लभते मूढ़ो यतः शमितुमिच्छति। शांति की इच्छा से शांति नहीं मिलती। क्योंकि इच्छा मात्र अशांति का कारण है। तो शांति की 128 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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