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है-आपका संन्यास! यह तो झंझट हो गई! संन्यासी होकर और घर में रह रहे हैं, यह कैसे हो सकता है! वह रो रही थी और मुझसे कहने लगी कि आप उनका संन्यास से छुटकारा करवा लें, इतनी मुझ पर कृपा करें! मैंने कहा कि तुझे तो खुश होना चाहिए; अगर जैन संन्यासी होते तो घर से चले जाते। वह कहती है : 'उसके लिए मैं राजी हूं। वे घर से चले जायें, उसके लिए मैं राजी हूं। मैं सम्हाल लूंगी बच्चों को। उसकी चिंता नहीं है।' ___ पति खो जाये, इसकी चिंता नहीं है। घर पर मुसीबत आयेगी, उसकी चिंता नहीं। लेकिन लोक-सम्मत होगा। समाज को स्वीकृत होगा। लोग आकर समादर तो करेंगे कि धन्यभाग, तेरे पति मुनि हो गये! तूने किन जन्मों में कैसे पुण्य किये थे!
रोयेगी भीतर, परेशान होगी; क्योंकि बच्चों को पढ़ाना है, पैसे का इंतजाम करना है, वह सब परेशानी होगी। लेकिन झेलने योग्य है परेशानी; अहंकार तो तृप्त होगा। अब वह मुझसे कहती है : यह आपका संन्यास तो झंझट है। और लोग आकर मुझसे कहने लगे कि तेरे पति का दिमाग खराब हो गया, पागल हो गया! अरे बचा! अभी मौका है, अभी खींच ले हाथ, नहीं तो गड़बड़ हो जायेगा।
पति छोड़ने को वह राजी है; लेकिन पति पागल समझे जायें, इसके लिए राजी नहीं है। जैन मुनि के होने का तो मतलब होगा कि पति मर गये; वह विधवा हो गई। उसके लिए राजी है!
तुम जरा सोचो, आदमी का मन कैसे अहंकार से चलता है। मेरे संन्यासी का तो अर्थ स्वाभाविक रूप से पागल है। यह तो एक मस्ती है, एक धुन है। और मैं तुम्हें कहता भी नहीं कि तुम समझदार होने की या समझदार सिद्ध करने की चेष्टा करना। तुम इसे स्वीकार कर लेना। तुम आनंद-भाव से स्वीकार कर लेना। तुम स्वयं ही घोषणा कर देना। अच्छा यही है कि तुम स्वयं ही घोषणा कर दो कि मैं पागल हूं।
तुम्हें देख क्या लिया कि कोई सूरत दिखती नहीं पराई तुमने क्या छू दिया, बन गई महाकाव्य गीली चौपाई कौन करे अब मठ में पूजा कौन फिराये हाथ सुमिरनी जीना हमें भजन लगता है, मरना हमें हवन लगता है!
आज इतना ही।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5