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के लिए क्या देने को राजी हो? तम शायद आधी दकान भी न दोगे। तम शायद आधा मकान भी न दोगे। तुम शायद अपनी आधी तिजोड़ी भी न दोगे। तुम कहोगेः 'प्रभु, अभी और बहुत काम करने हैं, तिजोड़ी अभी कैसे दे दूं? अभी लड़की की शादी करनी है, अभी लड़का युनिवर्सिटी में पढ़ रहा है। दे दूंगा एक दिन, लेकिन अभी नहीं दे सकता।' तुम क्या देने को राजी हो? __ कभी अपने मन में पूछना, अगर प्रभु द्वार पर खड़ा हो और कहे कि मैं मिलने को राजी हूं, तुम क्या देने को राजी हो? तब तुम क्या दे दोगे निकालकर? तुम्हारे हाथ डरेंगे, खीसे में न जायेंगे। . रवींद्रनाथ की एक बड़ी प्रसिद्ध कविता है। एक भिखारी, जैसा रोज भिक्षा मांगने जाता था वैसा ही भिक्षा मांगने निकला। पूर्णिमा का दिन है, धर्म का कोई दिन है और उसे बड़ी आशा है। और जैसे भिखारी जब भिक्षा मांगने जाते हैं तो घर से थोड़ा-सा अपनी झोली में डालकर निकलते हैं—स्वाभाविक है, जरूरी है। झोली में कुछ पड़ा हो तो लोग दे देते हैं, नहीं तो देते भी नहीं। झोली में पड़ा हो तो उनको जरा संकोच आता है कि दूसरों ने दे दिया है तो हम भी दे दें। जरा बदनामी का भी तो डर लगता है। मंदिर में पुजारी तक जब आरती के बाद पैसे के लिए थाली फिराता है तो उसमें कुछ पैसे डाल रखता है। क्योंकि अगर थाली खाली हो तो तुम्हारी हिम्मत बिलकुल टूट जायेगी; तुम एक पैसा भी न डाल पाओगे। तुम कहोगे: किसी ने भी नहीं डाला तो हमीं कोई बुद्ध हैं! अगर और भी बुद्ध बन चुके हैं, कुछ पैसे पड़े हैं, तो फिर तुम्हें ऐसा लगता है कि अब न डालें तो जरा कंजूसी मालूम होगी। तो एकाध पैसा तुम डाल देते हो। वह भी खोटे पैसे लेकर लोग मंदिर आते हैं। छोटी से छोटी चिल्लेड़ मांगते हैं। . निकला था थोड़े-से पैसे डालकर-थोड़े चने के दाने, थोड़े गेहूं, थोड़े चावल और राह पर आया है कि देखा, राजा का रथ आ रहा है धल उडाता। सबह सरज निकला है और उसका स्वर्ण-रथ चमक रहा है। वह तो बड़ा गदगद हो गया। उसने कहा, ऐसा कभी सौभाग्य न मिला था, क्योंकि राजा के महल में तो कभी प्रवेश ही नहीं मिलता था, भिक्षा मांगने का सवाल ही न था। आज राजा राह पर मिल गया है तो खड़ा हो जाऊंगा बीच में झोली फैलाकर, धन्यभाग हैं मेरे! कुछ न कुछ आज मिलने को है। __रथ आया, रुका भी। रुका तो भिखारी घबड़ाया भी। कभी राजा के साथ साक्षात्कार भी न हुआ था। और राजा नीचे उतरा भी। उतरा तो भिखारी बिलकुल ही कंप गया। और इसके पहले कि भिखारी होश जुटा पाता, अपनी झोली फैला पाता, राजा ने अपनी झोली उसके सामने फैला दी। और उसने कहाः 'क्षमा करो, ज्योतिषियों ने कहा है कि अगर मैं भिक्षा मांगू तो राज्य बच सकता है, अन्यथा राज्य पर बड़ा संकट आ रहा है। और ज्योतिषियों ने कहा है, आज सुबह मैं रथ पर निकलूं और जो आदमी पहले मिले, उससे भिक्षा मांग लूं। क्षमा करो, माना कि तुम भिखारी हो और तुम्हें देने में बड़ी कठिनाई होगी, लेकिन अब कोई उपाय नहीं है, राज्य को बचाने का सवाल है। कुछ न कुछ दे दो, इंकार मत कर देना।'
तो भिखारी बड़ा घबड़ाया। कभी उसने दिया तो था ही नहीं, मांगा ही मांगा था। देने की कोई आदत ही न थी, याद ही न आती थी कि कभी उसने कुछ दिया हो।
तुम जरा उसका संकट देखो। ऐसे ही संकट में तुम पड़ जाओगे, परमात्मा अगर झोली फैलाकर
एकाकी रमता जोगी
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