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प्रवेश करना। बाहर इतना है तो भीतर कितना न होगा! शब्द में इतना है तो निःशब्द में कितना न होगा! शब्द तो उधार है। मैं कितना ही कहूं, लाख तुम्हें ठीक से कहूं, तो भी ठीक-ठीक तुम तक पहुंचेगा नहीं। शब्द मार डालता है। शब्द सीमा दे देता है असीम को। शब्द के भीतर सिकुड़ना पड़ता है सत्य को। लेकिन अगर तुम आनंदित होने लगो मेरे साथ; सच ही मेरे और तुम्हारे बीच एक रास रचने लगे; मेरा शून्य तुम्हारे शून्य से मिलने लगे; मेरे शून्य के हाथ में तुम हाथ डाल कर नाचने लगो-तो अपूर्व आनंद घटित होगा! महाआनंद होगा!! सच्चिदानंद घटित होगा!!! ____ छोटे से तृप्त मत होना। इस सूत्र को सदा याद रखना ः संसार में तृप्ति; परमात्मा में अतृप्ति। संसार में जो मिले राजी हो जाना। यहां कुछ परेशान होने को है नहीं। रोटी-रोजी मिल जाये, छप्पर मिल जाये_बहत। खब प्रसन्न हो जाना। तप्त हो जाना। और परमात्मा में कितना ही मिले. राजीमत होना, क्योंकि और-और मिलने को है। तुम जहां राजी हो जाओगे, वहीं रुक जाओगे। परमात्मा में तो अतृप्त ही बने रहना। संसार में तृप्त और परमात्मा में अतृप्त-ऐसी साधक की परिभाषा है। परमात्मा में तृप्त और संसार में अतृप्त-ऐसी संसारी की परिभाषा है। ___लोग परमात्मा में बिलकुल तृप्त मालूम होते हैं। इतने लोग हैं दुनिया में, उनको परमात्मा से कुछ लेना-देना नहीं। वे कहते हैं : 'बिलकुल तृप्ति है। आप वहां भले, हम यहां भले! सब ठीक चल रहा है। परमात्मा ऊपर, हम पृथ्वी पर; सब ठीक चल रहा है। अब और करना क्या है। आप भले हम भले।' कभी जरूरत पड़ती है तो मंदिर में दो फूल चढ़ा देते हैं-औपचारिक कि कोई झंझट खड़ी न करना। सब ठीक ही चल रहा है आपकी कृपा से। लेकिन परमात्मा से कोई अतृप्ति नहीं है कि और मिले कि और मिले; कि बूंद बरसी, अब सागर बरसे! नहीं, कोई जरूरत ही नहीं है। .. संसार में बड़ी अतृप्ति है। हजार हैं तो दस हजार हों; दस हजार हों तो लाख हों; लाख हों तो करोड़ हों-वहां अतृप्ति की कोई सीमा नहीं है। कितना ही हो जाये, तो और हो!
तुमसे मैं कहता हूं : साधक का लक्षण है-संसार में तृप्ति और परमात्मा में निरंतर अतृप्ति। ऐसा दिव्य असंतोष तुममें जग जाये तो परमात्मा तुमसे ज्यादा देर दूर नहीं रह सकता। जो इतने प्राणों से पुकारता है, उससे मिलना ही होगा, मिलना ही होता है!
हरि ॐ तत्सत्!
'प्रेम, करुणा, साक्षी और उत्सव-लीला
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