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________________ तो उसने कहाः 'आखिरी संदेश! जो मुझे कहना था कह चुका; जो तुम्हें समझाना था समझा चुका। आखिरी बात याद रखना। इस महामंत्र को कभी मत भूलना। जो मैंने कहा उसे भूल जाना, मगर इसे मत भूलना।' वे सब चौंक कर खड़े हो गये। उन्होंने कहाः 'क्या शेष रहा है बताने को?' तो उसने कहा : 'एक बात-बिवेयर आफ जरथुस्त्रा! मैं जा रहा हूं, मुझसे सावधान!' यह सदगुरु का लक्षण है। जो भी मैंने तुमसे कहा, भूल जाना, कोई चिंता नहीं; लेकिन यह बात कभी भूल कर मत भूलना कि खतरा है कहीं जरथुस्त्र से मोह-आसक्ति न बन जाये; नहीं तो तुम फिर बाहर से उलझ गये। कोई बाहर की स्त्री से उलझा, कोई बाहर के धन से उलझा, कोई बाहर के परमात्मा से उलझा, कोई बाहर के गुरु से उलझ गया-उलझन जारी रही। मुक्ति है भीतर। मुक्ति है स्वयं में। तुम्हारा स्वभाव मुक्ति है। हरो यधुपदेष्टा ते हरिः कमलजोऽपि वा। ब्रह्मा, विष्ण, महेश जैसे गरु भी मिल जायें तो भी.... तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणादृते। ...तो भी जब तक सब न भूल जाये जो सीखा, शब्द न भूल जाये, सिद्धांत न भूल जाये, विचार न भूल जाये; जब तक निर्विचार निःशब्द मौन में प्रतिष्ठा न हो जाये-तब तक स्वास्थ्य की उपलब्धि नहीं है। स्वास्थ्य यानी मोक्ष। स्वास्थ्य यानी निर्वाण या कहो परमात्मा, परात्पर ब्रह्म, मोक्ष, मुक्ति—जो भी नाम देना चाहो। नाम का कोई मूल्य नहीं है। लेकिन जो है तुम्हारे भीतर है और बाहर से दबा है। बाहर को हटा दो तो भीतर का जो दबा हुआ फूल है, प्रगट हो जाये। बाहर की कीचड़ में दबा तुम्हारा कमल है। कीचड़ को हटा दो तो कमल खिल जाये। उस खिलने में ही तृप्ति है, संतोष है, महातोष है। उसके बिना असंतोष है। हरि ॐ तत्सत्! 56 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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