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________________ आखिरी प्रश्नः बात भी आपके आगे न जुबां से निकली लीजिए आई हूं सोच के क्या-क्या दिल में मेरे कहने से न आ, मेरे बुलाने से न आ लेकिन इन अश्कों की तो तौहीन न कर। जि सने पूछा है, भाव से पूछा है। क्योंकि मैं तो रजनीश की दुलहनियां! '' प्रश्न दो तरह के होते हैं-एक तो बुद्धि के और एक हृदय के। बुद्धि के प्रश्नों का तो कोई मूल्य नहीं है-दो कौड़ी के हैं; खुजलाहट जैसे हैं। जैसे खाज खुजलाने का मन होता है ऐसे ही बद्धि को भी खजलाने का मन होता है। लेकिन हृदय के प्रश्नों का बडा मल्य है। क्योंकि वे भाव के हैं और आत्मा के ज्यादा करीब हैं। विचार आत्मा से बहुत दूर; कर्म और भी दूर। कर्म सर्वाधिक दूर, विचार उससे कम दूर, भाव उससे कम दूर-और फिर भाव के बाद तो स्वयं का होना है। तो भाव निकटतम है। जिसने पूछा है, बड़े प्रार्थना के भाव से पूछा है। 'बात भी आपके आगे न जुबां से निकली।' __ जिसने पूछा है, मिलने को आया था। पूछा मैंनेः 'कुछ कहना है?' नहीं कुछ कह सके। आंख से आंसू भर बहे। बस कहना हो गया। जो कहना था, कह दिया। शब्दों से ही थोड़े कहा जाता है; और भी तो कहने के ढंग हैं; और भी तो कहने के महिमापूर्ण ढंग हैं। शब्द तो सबसे सस्ते ढंग हैं। आंसुओं से कह दी! 'बात भी आपके आगे न जुबां से निकली। लीजिए आई हूं सोच के क्या-क्या दिल में!' पूछा तो है पुरुष ने, लेकिन पंक्तियों से शायद तुम्हें लगे किसी स्त्री का प्रश्न है। लेकिन भाव । स्त्रैण है। भाव सदा स्त्रैण है। पुरुष का भाव भी स्त्रैण होता है और स्त्री की बुद्धि भी पुरुष की होती है। तर्क पुरुष का, भाव स्त्री का। तो जब कभी कोई पुरुष भी भाव से भरता है तो भी स्त्रैणता गहन हो जाती है। इसलिए तो भक्तों ने कहा कि परमेश्वर ही एकमात्र पुरुष है; हम तो सब उसकी सखियां हैं। 'बात भी आपके आगे न जुबां से निकली लीजिए आई हूं सोच के क्या-क्या दिल में!' भक्त हजार बातें सोच कर आता है, हजार-हजार ढंग से सोच कर आता है- 'ऐसा कह देंगे, ऐसा कह देंगे।' प्रेमी हजार बातें सोचता है कि ऐसा कह देंगे, ऐसा कह देंगे। और प्रेमी के सामने खड़े हो कर जुबान बंद हो जाती है। यही तो प्रेम का लक्षण है। तुमने जो रिहर्सल कर रखे थे, अगर प्रेमी के सामने खड़े हो कर तुम सबको पूरा करने में सफल हो जाओ तो असफल हो गये। तो व्यर्थ गया सब मामला। तो तुम नाटक में ही रहे। फिर तुम अपना रिहर्सल दुहरा लिए; तुम जो-जो याद करके आये थे, पाठ पूरा कर दिया। इसलिए तो मैं देखता हूं कि अभिनेता अच्छे प्रेमी नहीं हो पाते। उनको अभिनय करने में इतनी 28 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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