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________________ ही रहना, छोड़ना मत झाड़ को; जल्दी मत छोड़ देना, नहीं तो कच्चा रह जायेगा। पक! जितना रस ले सके ले।' लेकिन फिर जब फल पक जाये तब भी अटका रहे तो सड़ेगा। जब फल पक जाये तो छोड़ दे झाड़ को, अब बात खतम हो गई। जीवन का यह अनिवार्य हिस्सा है कि जीवन को हमें विरोध से ले चलना पड़ता है। एक सूफी फकीर बायजीद अपने गुरु के साथ नदी पार कर रहा था। वह उससे पूछने लगा, अपने गुरु से, कि आप सदा कहते हैं : संकल्प भी चाहिए, समर्पण भी चाहिए। दोनों बातें विपरीत हैं। कोई एक कहें; आप उलझा देते हैं। गुरु पतवार चला रहा था नाव की। उसने एक पतवार उठा कर नाव में रख ली और एक ही पतवार से नाव चलाने लगा। नाव गोल-गोल घूमने लगी। बायजीद ने कहा, आप यह क्या कर रहे हैं? कहीं एक पतवार से नाव चली ? यह तो गोल-गोल ही घूमती रहेगी। यह कभी उस पार जाएगी ही नहीं । तो उसके गुरु ने कहा : एक पतवार का नाम है संकल्प और एक पतवार का नाम है समर्पण। दोनों से ही उस तरफ जाने की यात्रा हो पाती है। दो पंख से पक्षी उड़ता है। दो पैर से आदमी चलता है। और तुम 'तो चकित होओगे यह जान कर कि मस्तिष्क की जो खोजबीन हुई है उससे पता चला है कि तुम्हारे पास दो मस्तिष्क हैं दोनों तरफ, उसके कारण ही सोच-विचार संभव होता है; चिंतन, मनन, ध्यान संभव होता है। . यह सारा जगत दिन और रात, जीवन और मौत, अंधेरा- उजाला, प्रेम और घृणा, करुणा और क्रोध - ऐसे विराधों से बना है। यह जगत विरोधों का संगम है। स्त्री और पुरुष । साथ भी नहीं रह पाते, अलग भी नहीं रह पाते। अलग रहें तो पास आने की इच्छा होती है; पास आयें तो फांसी लग जाती है, अलग होने की इच्छा होती है। और दोनों के बीच जीवन की धारा बहती है। दो किनारे, उनके बीच जीवन की सरिता बहती है। ठीक वैसी ही संकल्प और समर्पण की बात है । विनम्रता तो तभी आयेगी जीवन में जब तुम्हारे पास अपने पैरों पर खड़े होने का बल हो । तो मैं तुमसे जल्दी करने को नहीं कहता। मैं नहीं कहता कि जल्दी से तुम जल्दबाजी में और अहंकार छोड़ दो। कच्चा अहंकार छोड़ दिया तो भीतर घाव छूट जायेगा। और वह घाव कभी भरेगा नहीं । अहंकार को मजबूत होने दो, घबड़ाते क्या हो ? पहले 'मैं' को घोषणा करने दो कि मैं हूं। जब घोषणा पूरी हो जाये और पक जाये, तब एक दिन मैं को परमात्मा के चरणों में चढ़ा देना । पका फल चढ़ाना, खिला फूल चढ़ाना; कच्चा फल मत चढ़ा देना, कच्चा फूल मत चढ़ा देना । पक जाये जब अहंकार तो चढ़ा देना। तब तुम्हारे पीछे कोई रेखा भी नहीं छूटेगी। तब एक अदभुत घटना तुम्हें अनुभव होगी: अहंकार हट जायेगा और निर- अहंकारिता की अकड़ न आयेगी। नहीं तो अहंकार हट जाता है और विनम्र होने की अकड़ आ जाती है कि मैं विनम्र हूं, कि मैं दासों का दास ! मगर पकड़ वही है। अभी भी घोषणा वही चल रही है। अभी भी तुम यही कह रहे हो कि 'मुझसे ज्यादा विनम्र और कौन है! दिखा दो कोई और जो हो मुझसे ज्यादा विनम्र !' दौड़ अभी भी वही है, प्रतिस्पर्धाएं अभी भी वही हैं। दूसरों से ऊपर होने की पहले दौड़ थी; अब भी वही दौड़ जारी है। फर्क नहीं पड़ा । तुम्हारे मूल गणित में जरा भी फर्क नहीं पड़ा। 396 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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