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________________ भी क्या पागलपन है कि दिन भर उपवास किया, रमजान रखा और रात भोजन कर रहे हो! यह कोई महात्मापन हुआ? रात में तो अज्ञानी भोजन करते हैं, अज्ञानी तक नहीं करते। ये सूफी फकीर हैं? ये दिन भर तो उपवास किए हैं, अब रात भोजन कर रहे हैं सूरज ढलने के बाद ! इनका दिमाग खराब हो गया है! लेकिन मुसलमान को इसमें फकीर दिखाई पड़ता है। उसकी धारणा है। दिगंबर जैन का मुनि अगर खड़ा हो तो सारी दुनिया को पागल मालूम पड़ेगा — नंगा सड़क पर खड़ा हो गया। और दिगंबर जैन मुनि जब उसके बाल बढ़ जाते हैं तो केश- लुंच करता है, अपने केश नोच लेता है, उखाड़ देता है। तुम भी जानते हो, कभी-कभी स्त्रियां क्रोध में आ जाती हैं तो बाल उखाड़ने लगती हैं। तो मनोवैज्ञानिक कहते हैं, यह तो कुछ पागलपन का लक्षण है। आदमी कहता है कि ऐसा हो रहा है कि अपने बाल नोच डालूं, क्रोध की हालत में ऐसा हो जाता है। तो यह तो पागलपन है । और पागलखानों में ऐसे पागल हैं जो बाल नोच लेते हैं अपने । अब ये जैन मुनि, दिगंबर को तो लगेगा अहा ! जब जैन मुनि केश लुंच करते हैं तो सारे जैनी इकट्ठे होते हैं, उत्सव मनाते हैं। बीच में मुनि केशलोंचता है और वे सारे उत्सव मनाते हैं कि कैसी महान घटना का दर्शन कर रहे हैं ! लेकिन दूसरे सब हंस रहे हैं। दूसरे सब समझ रहे हैं कि ये दिमाग खराब होने की बातें हैं । यह कोई बात हुई ? तुम्हारी धारणा से अगर तुम चल रहे हो, तब तो तुम्हें महात्मा दिखाई पड़ जायेगा, क्योंकि तुमने एक बंधा हुआ दृष्टिकोण बना रखा है। लेकिन निर्धारणा हो कर जाओ । धारणा छोड़ कर जाओ। किसी धारणा से मत देखो। सहज देखो। तो तुम अड़चन में पड़ जाओगे। तब तुम्हें जो महात्मा दिखाई पड़ते थे वे महात्मा न दिखाई पड़ेंगे। और हो सकता है, जिनमें तुम्हें कभी महात्मा नहीं दिखाई पड़ा था उनमें कहीं महात्मा के दर्शन हो जायें । महात्मा का अर्थ ही यही होना चाहिए कि जिसके जीवन में और परमात्मा में तालमेल हो गया, संगीत बैठ गया, सुर एक हो गया; जो भोजन करते वक्त ध्यान मग्न है और दूकान पर बैठा हुआ प्रभु का स्मरण कर रहा है; जिसके प्रभु स्मरण में और जीवन - कृत्य में जरा भी भेद नहीं रह गया है। कबीर ने कहा है : 'उठूं-बैठूं सो सेवा !' मेरा उठना-बैठना ही प्रभु की सेवा है । 'चलूं-फिरूं सो परिक्रमा !' अब मंदिर में जाकर परिक्रमा नहीं करता। क्या फायदा? ऐसा चलता-फिरता हूं, उसमें प्रभु की ही परिक्रमा हो रही है; किसी और की तो परिक्रमा हो नहीं सकती, क्योंकि प्रभु ही तो है, कोई और तो है नहीं। उसके अतिरिक्त तो कुछ भी नहीं है । 'खाऊं- पीऊं सो सेवा ।' मंदिर में लोग जब भगवान को भोग लगाते हैं, तो कहते हैं, सेवा कर रहे हैं। और कबीर कहते हैं कि मैं खुद ही खा पी लेता हूं वह सेवा है; क्योंकि भीतर बैठा तो भगवान ही है, उसी के लिए भोग लगा रहा हूं। जब जीवन के साधारण कृत्य भी असाधारण की महिमा से मंडित हो जाते हैं; जब क्षुद्रत दिखाई पड़ने वाली बात में भी विराट की झलक आ जाती है; जब अणु में ब्रह्मांड झलकने लगतातब जीवन-मुक्ति । और तुमसे मैं यही कह रहा हूं। मेरी सारी देशना यही है। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं : संन्यास तो ले लो लेकिन घर छोड़ कर भाग मत जाना। तुम संन्यास को अपने घर में लाओ। संन्यास इतनी बड़ी महाक्रांति है कि तुम उसे अपने घर में लाओ; जहां हो वहीं खींचो, वहीं पुकारो। तुम्हारा घर मंदिर बने। तुम्हारा जीवन का जो सहज क्रम है, उसको असहज मत करो। उल्टा-सीधा करने से कुछ सार -मंदिर यह देह री प्रभु 393
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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