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________________ सवार हो जाये। अंधे को दिखाई नहीं पड़ता, पैर साबित हैं, चल सकता है। लेकिन अंधा अगर अपने ही पैर से चले और अपनी ही अंधी आंखों से देखे तो जल मरेगा; जंगल चारों तरफ लपटों से भरा है, निकलना बहुत मुश्किल है। टटोल न सकेगा, रास्ता खोज न सकेगा। लंगड़े को दिखाई पड़ता है, लेकिन पैर नहीं हैं। मालूम है कि कहां लपटें नहीं हैं; दौड़ सकता है, लेकिन दौड़े कैसे! उन दोनों ने निर्णय कर लिया और एक आपसी समझौता किया। लंगड़ा अंधे के कंधों पर सवार हो गया। वे दोनों उस आग लगे जंगल से बाहर निकल आये। दोनों अलग-अलग मर जाते। दोनों साथ हो कर बाहर निकल आये। एक संगम हुआ। एक बड़ी अदभुत घटना घट गई। लंगड़े ने अंधे को आंखें दे दी: अंधे ने लंगड़े को पैर दे दिए। जीवन-मुक्त ऐसी ही दशा है-जहां जीवन के कंधों पर परमात्मा सवार हो जाता है; जहां जीवन की साधारणता में परमात्मा की असाधारणता प्रगट होती है। इसलिए तो अष्टावक्र कहते हैं: जीवन-मुक्त ऊपर से देखने पर तो साधारण जैसा ही मालूम पड़ता, साधारण आदमी जैसा ही मालूम पड़ता है। उसका वर्तन, उसका व्यवहार ऊपर से तो साधारण आदमी जैसा होता है, लेकिन भीतर बड़ी असाधारणता होती है, बड़ी भिन्नता होती है। क्या भिन्नता होती है? रहता है जगत में, लेकिन लिप्त नहीं होता। जीता है जगत में, लेकिन बंधनग्रस्त नहीं होता। चलता है, उठता है, बैठता है, काम करता है, परमात्मा जो करवाये करता है लेकिन कर्ता नहीं बनता, निमित्त मात्र रहता है। जो हो, हो। जो न हो, न हो। न तो कुछ होना चाहिए, ऐसा उसका आग्रह है; न ऐसा नहीं होना चाहिए, ऐसा उसका कोई आग्रह है। ऐसा व्यक्ति संसार में रहता है और फिर भी संसार में नहीं रहता। अष्टावक्र कहते हैं : ऐसा व्यक्ति देखता है और नहीं देखता; होता है और नहीं होता। यह अपूर्व घटना है। इस जगत में जो सबसे महत्वपूर्ण घटना है, सबसे उत्कृष्ट, वह है जीवन-मुक्ति–जहां जीवन और मोक्ष का मिलन हो गया; जहां जीवन के कंधों पर, जीवन की ऊर्जा पर मोक्ष सवार हो गया। तुम दो तरह के लोग तो साधारणतः देख लोगे, वे तुम्हारे पहचाने हुए हैं। एक है भोगी, वह अंधा है। वह टकराता फिरता है, टटोलता फिरता है और जलता रहता है, दुख भोगता रहता है। और एक है तुम्हारा महात्मा, वह लंगड़ा है। वह बैठा है मुर्दे की तरह। उसे दिखाई तो पड़ता है कि रास्ता कहां है, लेकिन चल नहीं पाता, क्योंकि लंगड़ा चले कैसे! परमज्ञानी दोनों का जोड़ है। संसार से भागता नहीं; संसार में ही परमात्मा को उपलब्ध कर लेता है। जीवन ही साधना बन जाती है। जीवन ही मंदिर बन जाता है। देह ही मंदिर बन जाती है। प्रभु-मंदिर यह देह री! क्षिति की क्षमता जल की समता पावक दीपक जाग्रत ज्योतित निशि-दिन प्रभु का नेह री! प्रभु-मंदिर यह देह री! गगन असीमित पवन अलक्षित प्रभु कर उनसे पल-पल रक्षित यह पंचमहला गेह री! प्रभ-मंदिर यह देहरी 391
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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