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________________ न! महात्मा का काम ही यही है कि सफाई करता रहे। हजामत ही करनी है न, तो महात्मा का काम ही यह है। तुम आते भर रहो, बाल कटाते-कटाते किसी दिन सिर भी कटा बैठोगे। मगर सेना नाई बाल ही बनाता रहा। रैदास चमार का काम करते रहे। ये अनूठे पुरुष हैं; इनमें ही ठीक-ठीक 'महाशय' प्रगट हुआ है! 'जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है।' वर्तन तो लोगों जैसा है, लेकिन भेद भीतर है। लोग मूछित बरत रहे हैं, वह जाग्रत। उसी राह पर चल रहा है जिस पर और लोग भी चल रहे हैं, लेकिन लोग नशे में चल रहे हैं, वह होश में चल रहा है। वही कर रहा है जो लोग कर रहे हैं! लेकिन लोगों को करने का कोई पता नहीं कि क्या हो रहा है, किए जा रहे हैं, वासनाओं की धुंध में चले जा रहे हैं, दौड़े जा रहे हैं। ज्ञानी भीतर दीये को जलाये है। भेद भीतर के दीये में है। - और ध्यान रखना, व्यवहार में जो भेद दिखाना चाहता है, शायद उसके भीतर दीया नहीं जला है; इसलिए जो दीये से पता चलना चाहिए था, वह भेद से दिखलाना चाहता है। दीया तो नहीं है; दीया तो खाली है. घर सना पड़ा है। तो वह फिर ऊपर के आयोजन करता है। नंगा खड़ा हो जाता है। भीतर निर्दोष होता तो नंगे खड़े होने की कोई ऐसी आवश्यकता न थी। भीतर तो निर्दोष नहीं है। भीतर तो अभी बालवत नहीं हुआ। लेकिन बाहर से दावा तो कर ही सकता है। नंगे खड़े हो जाने से तो कुछ हल नहीं होता। नंगे तो पागल भी खड़े हो जाते हैं। नंगे खड़ा हो जाना तो बड़ी छोटे-से अभ्यास की बात है। इससे तुम्हारे भीतर रूपांतरण नहीं होगा। ... मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि अगर तुम्हारे भीतर रूपांतरण हो जाये और तुम्हें सहज यही लगे नग्न होना, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि रुकना। जो सहज हो करना। लेकिन चेष्टा से नहीं हो। तुम देखते अपने साधु-महात्मा को! वह सब तरह की कोशिश करता है तुमसे विशिष्ट होने की। एक साधु मेरे साथ ही यात्रा को गये। उनके साथ मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा क्योंकि उनका सब काम तीन बजे रात। तो वे उठ आयें। मैंने कहा कि दूसरे के घर में ठहरे हैं, दूसरे का भी तो खयाल करो। उन्होंने कहा, मैं कोई गृहस्थ थोड़े ही हूं; मैं तो तीन ही बजे उलूंगा। मैंने कहा, चलो कोई बात नहीं तीन बजे उठ आओ, लेकिन इतने जोर-जोर से तो राम-राम न करो, घर के लोग जगते हैं, मुहल्ले के लोग जगते हैं। उन्होंने कहा, वह तो मैं सदा से करता रहा हूं। मैंने कहा, धीरे-धीरे कर लो, मन में करने में क्या बिगड़ता है? राम तो सुन लेंगे। कोई राम बहरे तो नहीं हैं। कहा नहीं है कबीर ने कि बहरा हुआ खुदाय! क्या तेरा खुदा बहरा है जो इतने जोर से अजान कर रहा है? इतने जोर से क्या चिल्लाना! लेकिन लगता ऐसा है, मैंने उनसे कहा कि तुम्हें ईश्वर से कोई मतलब नहीं है, तुम पूरे मुहल्ले को, गांव को खबर करना चाहते हो कि स्वामी जी उठ गये, कि देखो स्वामी जी तीन बजे ब्रह्म-मुहर्त में उठ गये हैं। फिर तो बड़ी झंझटें उनके साथ ः घी ताजा चाहिए तीन घंटे पहले बना, नहीं तो वे ले नहीं सकते। और गाय का दूध चाहिए, भैंस का नहीं। मैंने पूछा, मामला क्या है? वे कहने लगे कि भैंस का दूध लो तो भैंस जैसी बुद्धि हो जाती है। तो मैंने कहा, तरबूज-खरबूज मत खाना, नहीं तो तरबूज-खरबूज जैसी बुद्धि हो जायेगी। साग-भाजी मत खाना, नहीं तो साग-भाजी हो जाओगे। और गाय भी सफेद चाहिए, काली गाय नहीं! वे इतना उपद्रव खड़ा कर देते, मगर जल्दी से प्रसिद्ध हो साक्षी स्वाद है संन्यास का 3731
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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