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जाता है।
‘जो आत्मा में विक्षेप देखता है, वह पुरुष भला चित्त का निरोध करे...।' - देखें एक-एक सूत्र! पहला सूत्र त्यागियों के विरोध में कि त्यागी भी भोगी जैसे हैं; दूसरा सूत्र उपनिषद के पार जाता है, उपनिषद के विरोध में, कि 'मैं ब्रह्म हूं' ऐसी घोषणा करने वाला भी अभी एक सीढ़ी नीचे है। तीसरा सूत्र पतंजलि के विरोध में है :
'जो आत्मा में विक्षेप देखता है, वह पुरुष भला चित्त का निरोध करे...।' पतंजलि ने कहा : योग का अर्थ है चित्त-वृत्ति निरोध। 'लेकिन विक्षेप-मुक्त उदार पुरुष साध्य के अभाव में क्या करे!'
जब तक मन में विक्षेप हैं तब तक कोई निरोध भी करे, लेकिन विक्षेप न रहे तो कैसा निरोध, किसका निरोध और कौन करे।
दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ। - हां, जिसके मन में बेचैनियां हैं, वह संयम साधे। जिसके मन में तनाव हैं, वह विश्रांति साधे। और जिसके मन में हजार-हजार तरंगें उठती हैं वासना की, वह निरोध साधे। उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम्।
लेकिन, जिसका मन सच में शांत हुआ, चैतन्य सच में ही विश्रांति को उपलब्ध हुआ, वह किस बात का निरोध करे! निरोध करने को कुछ बचा नहीं। . 'विक्षेप-मुक्त उदार पुरुष साध्य के अभाव में क्या करे!'
उसके लिए कोई साध्य भी नहीं बचा। न साध्य बचा न साधन बचा। ऐसी ही घड़ी परममुक्ति की घड़ी है : जब न कुछ पाने को बचा न कुछ खोने को बचा। तब तुम आ गये घर। तब तुम आ गये उस जगह जहां आने के लिए सदा से दौड़ रहे थे। और यह जगह कुछ ऐसी है कि तुम्हारे भीतर सदा मौजूद थी; तुम कभी भी भीतर मुड़ जाते तो इसे पा लेते। इसे खोजने के लिए खोजना जरूरी ही न था; वस्तुतः
ने के कारण ही भटके रहे। यह तम्हारा स्वभाव है। साध्य नहीं: तम्हारा स्वभाव है। इसे पाने के लिए कुछ करना नहीं है; इसे तुमने पाया ही हुआ है! यह प्रभु-प्रसाद है। यह तुम्हें मिला ही हुआ है। यह तुम्हारे भीतर ही मौजूद है। लेकिन भीतर तुम जरा आंख तो करो।
'जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है, वह धीरपुरुष न अपनी समाधि को न विक्षेप . को और न दूषण को ही देखता है।'
धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्। और परम ज्ञानी की परिभाषा करते हैं : 'जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है।' .
अब तुम खयाल करना, जैसे ही तुम्हारे जीवन में त्याग आना शुरू होता है, तुम तत्क्षण कोशिश करते हो कि भोगियों जैसे न बरतो। विशिष्ट होने की कोशिश करते हो। ___ कल ही किसी ने पूछा था कि मुझे रास्ता बतायें कि मेरे भीतर महामानव कैसे पैदा हो, मैं महात्मा कैसे बनूं? यह तो अहंकार ही है। अब यह महात्मा की आड़ में बचना चाहता है। तुम सहज हो जाओ। यह महान बनने की चेष्टा बीमार है। इस चेष्टा में ही रोग के सारे बीज छिपे हैं, कीटाणु छिपे हैं। तुम तो ऐसे ही बरतो जैसा सामान्य जन बरतता है। तुम भिन्न होने की चेष्टा ही मत करो।
साक्षी स्वाद है संन्यास का
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