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________________ आखिरी प्रश्नः कल आपने भय की चर्चा की कि सब कुछ भय से ही हो रहा है। वेद भी ऐसा ही कहते हैं। वेदों में भी आदमी को डराया ही गया है। यह भय क्यों और कैसे पैदा हुआ जिसके कारण मैं बहुत परेशान हूं? भय के अतिरिक्त मुझमें कोई वासना नहीं है। इस भय मात्र को मिटाने के उपाय बताने की अनुकंपा करें। पहली बातः जब तक तुम भय को मिटाना चाहोगे, भय न मिटेगा । तुम्हारे मिटाने में ही भय छिपा है। तुम न केवल भयभीत हो, तुम भय से भी भयभीत हो । इसलिए तो मिटाना चाहते हो। तुम मिटा न सकोगे। तुम मिटोगे तो भय चला जायेगा। तुम भय को न मिटा सकोगे। भय ही तुम्हारे अहंकार की छाया है। समझो कि भय क्या है। तुम जानते हो मौत होगी, इसे तुम झुठला नहीं सकते । रोज कोई मरता है। हर मरने वाले में तुम्हारे ही मरने की खबर आती है। जब भी कोई अरथी निकलती है, तुम्हारी ही अरथी निकलती है। और जब भी कोई चिता जलती है, तुम्हारी ही चिता जलती है। कैसे भुलाओगे ? तुम जानते हो कि तुम भी मरोगे। मग तो मरोगे तो ही । यह देह तो मरण-शैय्या पर धरी है। यह तो चढ़ी है चिता पर। यह तो तुम 'रोज मरते जा रहे हो । भयभीत कैसे न होओगे ? यह डर तो खायेगा। यह तो घबड़ायेगा कि मौत करीब आ रही है, पता नहीं कब आ जाये ! कभी भी आ जाये, किसी भी क्षण आ सकती है। इस जीवन में एक ही चीज निश्चित है - मृत्यु; और तो कुछ निश्चित नहीं है। इस निश्चित मृत्यु से तुम घबड़ाओगे कैसे न ? घबड़ाओगे तो ही । यह बिलकुल स्वाभाविक है। तुमने शरीर को समझ लिया मैं, तो मौत होने वाली है। मौत होगी तो भय होगा। तुमने मन को समझ लिया मैं । और मन तो शरीर भी ज्यादा अस्थिर है; क्षण भर भी वही नहीं रहता, बदलता ही जाता है; पानी की धार है, अभी कुछ, अभी कुछ। सुबह प्रेम से भरा था, दोपहर घृणा से भर गया । अभी-अभी श्रद्धा उमग रही थी, अभी-अभी अश्रद्धा पैदा हो गई। अभी-अभी बड़ी करुणा दर्शा रहे थे, अभी -अभी क्रोध में आ गये। अभी जिसके लिए मरने को तैयार थे, अभी उसको मारने को तत्पर हो गये । यह मन तो भरोसे का नहीं है; यह तो बिलकुल कंप रहा है। यह तो पानी की लहर है। इस पर तो खींचो कुछ, खिंचता नहीं है, मिट जाता है। इस मन के साथ तुमने अपने को एक समझा है ! क्षणभंगुर मन के साथ तुमने अपने को एक समझा है। मृत्यु के मुख में चले जा रहे शरीर के साथ तुमने अपने को एक समझा। तुम भयभीत कैसे न होओगे ? और तुम पूछते हो : भय से छुटकारा कैसे हो ? भय स्वाभाविक है। भय तुम्हारे भ्रांत तादात्म्य की छाया है। जिस दिन तुम जानोगे कि मैं शरीर नहीं, मैं मन नहीं, उसी दिन तुम जानोगे कि भय गया। लेकिन उस दिन तुम यह भी जानोगे कि मैं भी नहीं; न शरीर मैं हूं, न मन मैं हूं। तब जो शेष रह जाता है वहां तो मैं खोजे भी मिलता नहीं। वहां तो मैं कोई धारणा ही नहीं बनती। मैं तो पैदा ही तादात्म्य से होता है। किसी चीज से जुड़ जाओ तो मैं पैदा होता है। शरीर से जुड़ जाओ तो मैं । मन से जुड़ जाओ तो मैं। धन से जुड़ जाओ तो मैं। धर्म से -सहज होने की प्रक्रिया संन्यास 353
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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