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________________ कहा नहीं जा सकता। वह सातवां है। सब वक्तव्यों के बाद याद रखना. मैं तमसे कहना चाहता हंः अवक्तव्य। जो मैं कहना चाहता हूं, वह कहा नहीं जा सकता। कहने की कोशिश कर रहा हूं, क्योंकि तुम अनकहे को अभी समझ न सकोगे। इसलिए कभी कहता हूं ईश्वर है, यह भी एक वक्तव्य है—ईश्वर के संबंध में। कभी कहता हूं ईश्वर नहीं है, यह भी एक वक्तव्य है-ईश्वर के संबंध में। पहले वक्तव्य में 'हां' के द्वारा ईश्वर को समझाया गया, दूसरे वक्तव्य में 'नहीं' के द्वारा समझाया गया। पहले वक्तव्य में दिन के द्वारा, दूसरे वक्तव्य में रात के द्वारा। पहले वक्तव्य में भाव के द्वारा, दूसरे वक्तव्य में अभाव के द्वारा। पहले वक्तव्य में आस्तिकता के सहारे, दूसरे वक्तव्य में नास्तिकता के सहारे। अब तुम बड़े हैरान होओगे कि नास्तिक का वक्तव्य भी ईश्वर के संबंध में है। और ईश्वर में दोनों मिले हैं 'है' भी और 'नहीं' भी। तभी तो चीजें होती हैं और 'नहीं हो जाती हैं। __तुम देखते हो, एक वृक्ष है; कल नहीं था, फिर बीज फूटा, फिर वृक्ष हो गया; आज है, कल फिर नहीं हो जायेगा। अगर परमात्मा का स्वभाव सिर्फ 'है' ही हो तो वृक्ष 'नहीं' कैसे होगा? परमात्मा के स्वभाव में दोनों बात होनी चाहिए। वृक्ष का होना भी परमात्मा को राजी है, वृक्ष का न होना भी राजी है। जब वृक्ष 'नहीं' हो जाता तब भी परमात्मा को कोई बाधा नहीं पड़ती; वृक्ष हो जाता है तो भी बाधा नहीं पड़ती। तो परमात्मा में 'हां' भी है, 'नहीं' भी है। अभाव भी, भाव भी। यह जरा कठिन है। आस्तिक का वक्तव्य सरलतम है। वह कहता है 'है'। नास्तिक का वक्तव्य थोड़ा कठिन है, लेकिन बहुत कठिन नहीं । वह कहता 'नहीं' है। लेकिन खयाल करते हैं, दोनों वक्तव्यों में 'है' तो है ही। कोई कहता है परमात्मा 'है'; कोई कहता है परमात्मा नहीं है'! पर 'है' तो दोनों में ही मौजूद है। है-पन तो है ही। महावीर फिर तीसरा वक्तव्य बनाते हैं कि दोनों है; अलग-अलग मत कहो; अलग-अलग कहने में बात अधूरी रह जाती है। पूरा कह दो। ऐसा बढ़ते जाते हैं और अंत में असली बात कहते हैं कि अवक्तव्य है, कहा नहीं जा सकता। ये सब कहने के उपाय हुए। इस बहाने कहना चाहा। लेकिन जो भी कहा वह छोटा-छोटा रहा; जिसे कहा जाना था वह बहुत बड़ा है, समाया नहीं, अटा नहीं, कह नहीं पाये। तो आखिर में असली बात कहे देते हैं कि मौन से ही उसे कहा जा सकता है। 'आश्चर्य कि आपने आज तक अपना एक भी वक्तव्य वापिस नहीं लिया है।' सभी वक्तव्य उसी एक की तरफ इशारे हैं। 'और न किसी वक्तव्य में कोई संशोधन करने की जरूरत समझी।' संशोधन का तो मतलब होता है अहंकार। ऐसा हुआ कि गुजरात के एक पुराने गांधीवादी आनंद स्वामी एक रात मेरे साथ रुके। बैठ कर गपशप होती थी। तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं गांधी जी का पुराना से पुराना रिपोर्टर हूं। जब गांधी जी अफ्रीका से भारत आये, तो जो वक्तव्य उन्होंने पहला दिया था उसकी रिपोर्ट अखबारों में मैंने ही दी थी। लेकिन उस वक्तव्य में गांधी जी ने कुछ अपशब्द उपयोग किए थे, अंग्रेजों के प्रति कुछ गालियां उपयोग की थीं, वे मैंने छोड़ दी थीं। और जब दूसरे दिन गांधी जी ने रिपोर्ट पढ़ी अखबारों में तो उन्होंने पता लगवाया कि यह रिपोर्ट किसने दी है। मुझे बुलवाया, मुझे गले लगा लिया और कहाः रिपोर्टर संन्यास-सहज होने की प्रक्रिया 349
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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