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________________ कोई अधिकार नहीं । उसे मैंने बोला भी नहीं था, तो वापिस लेने का मेरा क्या अधिकार है? मैं उसका मालिक नहीं हूं। जो मुझसे बोला था उस क्षण वही मुझसे अब भी बोल रहा है — इतना मैं जानता हूं । उस क्षण उसने ऐसा बोलना चाहा था, इस क्षण ऐसा बोल रहा है। अगर इसमें किसी को संगति बिठानी हो तो परमात्मा, वह फिक्र करे। मैंने अपने को बांसुरी की तरह छोड़ दिया है। अब बांसुरी यह थोड़े ही कहेगी कि 'कल तुमने एक गीत गाया और आज तुम दूसरा गाने लगे ? हे वेणु-वादक, रुको! यह असंगति हुई जाती है। कल तुम कोई और राग छेड़े थे, आज तुमने कोई राग छेड़ दिया। नहीं-नहीं, या तो जो कल गाया था वही गाओ, या फिर आज जो तुम गा रहे हो तो कल के लिए क्षमा मांग लो।' बांसुरी ऐसा कहेगी : जिसने कल गाया था, वही आज भी गा रहा है। कल उसने उस राग को पसंद किया था, आज उसने कोई और राग चुना है । मैं बीच में पड़ने वाला कौन ? इसलिए मुझे चिंता नहीं सताती। तुम्हारा प्रश्न भी ठीक है । कोई दूसरा व्यक्ति इतने वक्तव्य देता तो या तो पागल हो जाता... क्योंकि अगर इतना बोझ अपने सिर पर रखता तो विक्षिप्त हो जाता। इन सबके बीच कैसे हिसाब बिठाता, कितने गीत गाये गये ? मगर मैं तो जो गीत इस क्षण गाया जा रहा है, उससे ही संबंधित हूं। उससे अन्यथा का मुझे कुछ हिसाब नहीं है। संगति बिठाने में मेरी रुचि नहीं है । और तुम भी इस फिक्र में मत पड़ना । तुम्हारी तकलीफ मैं समझता हूं। तुम भी इस फिक्र में मत पड़ना। तुम भी यह हिसाब मत लगाना कि मेरे सारे वक्तव्यों में कुछ संगति खोज लो । संगति है, लेकिन तुम जिस दिन बांसुरी बनोगे उस दिन पता चलेगी, उसके पहले पता नहीं चलेगी। वक्तव्यों में संगति नहीं है; जो ओंठ मेरी बांसुरी पर रखे हैं, वे एक के ही ओंठ हैं, उसमें संगति है । वक्तव्य अलग-अलग, गीत अलग-अलग, छंद अलग-अलग; लेकिन यह तो तुम्हें उसी दिन पता चलेगा जब तुम भी बांस की पोंगरी हो जाओगे। तब तुम अचानक देख' पाओगे : अरे, सब जो विपरीत दिखाई पड़ता था, संयुक्त हो गया ! वह जो सब खंड-खंड दिखाई पड़ता था, अखंड हो गया। वह सब टुकड़े-टुकड़े मालूम पड़ता था और तालमेल नहीं बैठता था, वह किसी एक विराट व्यवस्था का अंग था, उसमें एक अनुशासन था । वह तुम्हें उसी दिन दिखाई पड़ेगा जिस दिन परमात्मा बोलने लगेगा तुम्हारे ओंठ से और तुम्हारे ओंठ से गाने लगेगा, तुम बांसुरी हो जाओगे । मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं। इसलिए किसी वक्तव्य को न तो कहने की इच्छा है न उसे वापिस लेने की इच्छा है। जो जिस क्षण में हो जाये, मैं राजी हूं। तुम मुझे एक कवि समझो। तुम कवि से आकांक्षा नहीं करते कि उसकी दो कविताओं में संगति हो। या तुम मुझे एक चित्रकार समझो। तुम चित्रकार से आशा नहीं करते कि उसके दो चित्रों में एक संगति हो । सच तो यह है चित्रकार से तुम्हारी अपेक्षा होती है कि उसका दूसरा चित्र बिलकुल अनूठा हो, पहले से बिलकुल मेल न खाये। अगर कोई चित्रकार अपने उन्हीं - उन्हीं चित्रों को दोहराये चला जाये तो तुम कहोगे यह चित्रकार मुर्दा है । ऐसा पिकासो के जीवन में उल्लेख है, कोई मित्र पिकासो की एक पेंटिंग खरीदा। कई लाख रुपये में खरीदी। वह पिकासो के पास लाया और उसने कहा कि यह पेंटिंग मौलिक रूप से तुम्हारी ही है 344 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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