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चाहिए। अब कभी हो गया क्रोध, किसी ने धक्का मार दिया, अब क्रोध हो गया, अब तम घर लौट कर बैठे उदास कि यह मामला क्या है, सामान्य से नीचे गिर गये, क्रोध हो गया! संन्यासी को तो क्रोध होना नहीं चाहिए! तो तुम मेरे संन्यास को समझे नहीं। मैं तुमसे कह रहा हूं कि संन्यासी अहंकार का विसर्जन कर दे, तो ही संन्यासी है। अब यह एक नया अहंकार तुम पाल रहे हो कि संन्यासी को क्रोध नहीं होना चाहिए। क्यों नहीं होना चाहिए? हो जाये तो ठीक, न हो जाये तो ठीक है। जो परमात्मा करवा ले, ठीक है। अगर तुम इतनी परम स्वीकृति को जीने लगो तो ये सामान्य-असामान्य, विशिष्टसाधारण, ये सब कोटियां तुम्हारी गिर जायेंगी। और तब तुम अचानक चौंक कर एक दिन पाओगे क्रोध भी खो गया। क्योंकि क्रोध जीता ही इन्हीं कोटियों के कारण है कि मैं विशिष्ट! ___ तुम्हें जब कोई धक्का मार देता है, तुम क्या कहते हो? जानते नहीं, मैं कौन हूं! क्या मतलब हुआ ः 'जानते नहीं मैं कौन हूं? होश सम्हालो!' ___ यह अहंकार ही तो क्रोध पैदा कर रहा है। फिर एक नया अहंकार तुमने पैदा कर लिया कि मैं संन्यासी हूं, क्रोध नहीं करूंगा चाहे कुछ भी हो जाये। अब यह एक नया अहंकार है। फिर तुम विशिष्ट हुए। क्रोध तो होगा, अब भीतर सरकेगा। ___उस आदमी के जीवन में विकृतियां खो जाती हैं जिस आदमी के जीवन में मूल्य तिरोहित हो जाते हैं। इसलिए अष्टावक्र बार-बार कहते हैं : न कुछ शुभ है, न कुछ अशुभ है; न कुछ कर्तव्य न कुछ अकर्तव्य; न कुछ नीति न कुछ अनीति। ये वचन बड़े क्रांतिकारी हैं। मुझे पक्का भरोसा नहीं है कि तुम समझ पा रहे हो, क्योंकि तुम्हारे भीतर सदियों से बैठा हुआ धारणाओं का जाल है। वह उधर बैठा सोच रहा है कि अच्छा ऐसा...ऐसा तो हो नहीं सकता। तुम्हें यह घबड़ाहट लगी है कि तुम्हारी कोटियों का क्या होगा!
तुम संन्यासी भी होना चाहते हो तो विशिष्ट होने को। और मैं तुम्हें संन्यासी बना रहा हूं ताकि तुम अति सामान्य हो जाओ, सहज हो जाओ। तुम्हारा पुराना संन्यासी विशिष्ट था—घर में नहीं रहेगा, जंगल में रहेगा; किसी के साथ नहीं उठेगा-बैठेगा, साधारण बोलचाल में नहीं उतरेगा, दूर-दूर, पृथक-पृथक, अलग-अलग, हर बात में भेद प्रगट करेगा; सामान्य से अपने को अलग करने की हर चेष्टा करेगा। मैंने तुम्हें संन्यास दिया है और तुम्हें जीवन से दूर करने की कोई चेष्टा नहीं की। तुम पति हो, पत्नी हो, बेटे हो, बाप हो, घर है, द्वार है, दूकान भी चलाओगे, नौकरी भी करोगे-तुम्हें मैंने संन्यास दिया है, तुम जैसे हो वैसे ही। तुम्हें मैं अन्यथा नहीं देखना चाहता।
अगर तुम मेरी बात समझ गये तो मैंने तुम्हें मुक्ति दे दी है। अब तुम्हारे ऊपर कोई बोझ नहीं है-कुछ होने का बोझ नहीं है। ___'मुक्ति का सुवास उसे तत्क्षण एक ईमानदार महामानव क्यों नहीं बना पाता?'
महामानव बनने की आकांक्षा पागलपन है। 'महामानव'-मतलब क्या होता है? दूसरे मानव पीछे पड़ जायें; तुम झंडा लिए आगे चले जा रहे हो— 'झंडा ऊंचा रहे हमारा!' महामानव! आदमी होना काफी नहीं, पर्याप्त नहीं? तुम किसी न कसी तरफ महान हो कर रहोगे?
सहज मानव कहो, महामानव नहीं। और सहज मानव ही वस्तुतः महामानव है। जिसको तुम महामानव कहते हो वह तो अहंकार की एक नई यात्रा है। इससे सावधान रहो। अहंकार के रास्ते बड़े
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4