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________________ वह भी अतिशयोक्ति होगी। वह भी अतिशय हो जायेगा। जो शांत हो गया है वह तो संतुलित हो जाता है। वह तो मध्य में ठहर जाता है। न तो मूढ़ रह जाता है और न ज्ञानी। तो न तो अतिबोध और न अति मूढ़ता; वह दोनों के मध्य में शांत चित्त खड़ा होता है। तुम उसे मूढ़ भी नहीं कह सकते, उसे पंडित भी नहीं कह सकते। वह तो बड़ा सरल, संतुलित होता है, मध्य में होता है। उसके जीवन में कोई अति नहीं रह जाती। कोई अति नहीं रह जाती! न तुम उसे हिंसक कह सकते न अहिंसक। ये दोनों अतियां हैं। न तुम उसे मित्र कह सकते न शत्रु। ये दोनों अतियां हैं। वह अति से मुक्त हो जाता है। और अति से मुक्त हो जाना ही मुक्त हो जाना है। उसे न सुख है न दुख है। वह द्वंद्व के पार हो जाता है। साधारणतः लोग सोचते हैं : जब ज्ञान उत्पन्न होगा तो हम महाज्ञानी हो जायेंगे। नहीं, जब ज्ञान उत्पन्न होगा, तब न तो तुम ज्ञानी रह जाओगे और न मूढ़। जब ज्ञान उत्पन्न होगा तो तुम इतने शांत हो जाओगे कि ज्ञान का तनाव भी न रह जायेगा। तुम ऐसा भी न जानोगे कि मैं जानता हूं। यह बात भी चली जायेगी। तुम जानोगे भी और जानने का कोई अहंकार भी न रह जायेगा। तुम जानते हुए ऐसे हो जाओगे जैसे न जानते हुए हो। मूढ़ और ज्ञानी के मध्य हो जाओगे। कुछ-कुछ मूढ़ जैसे-जानते हुए नजानते हुए से। कुछ-कुछ ज्ञानी जैसे-नजानते हुए में जानते हुए से। ठीक बीच में खड़े हो जाओगे। इस मध्य में खड़े हो जाने का नाम संयम। इस मध्य में खड़े हो जाने का नाम सम्यकत्व। इस मध्य में । खड़े हो जाने का नाम संगीत। - बुद्ध ने कहा है कि अगर वीणा के तार बहुत ढीले हों तो संगीत पैदा नहीं होता। और अगर वीणा के तार बहुत कसे हों तो वीणा टूट जाती है, तो भी संगीत पैदा नहीं होता। एक ऐसी भी दशा है वीणा के तारों की कि जब न तो तार कसे होते, न ढीले होते; ठीक मध्य में होते हैं। वहीं उठता है संगीत। जीवन की वीणा के संबंध में भी यही सच है। 'निर्विकल्प स्वभाव वाले योगी के लिए राज्य और भिक्षावृत्ति में, लाभ और हानि में, समाज और वन में फर्क नहीं है।' न विक्षेपो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढ़ता। · न सुखं न च वा दुःखमुपशांतस्य योगिनः।। स्वराज्ये भैक्ष्यवृत्तौ च लाभालाभे जने वने। निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः।। ऐसा जो शांत हो गया, मध्य में ठहर गया, संतुलित हो गया, ऐसे अंतरसंगीत को जो उपलब्ध हो गया—ऐसे निर्विकल्प स्वभाव वाले योगी के लिए फिर न राज्य में कुछ विशेषता है, न भिक्षावृत्ति में। ऐसा योगी अगर भिक्षा मांगते मिल जाये तो भी तुम सम्राट की शान उसमें पाओगे। और ऐसा व्यक्ति अगर सम्राट के सिंहासन पर बैठा मिल जाये तो भी तुम भिक्षु की स्वतंत्रता उसमें पाओगे। __ ऐसा व्यक्ति कहीं भी मिल जाये, तुम अगर जरा गौर से देखोगे तो तुम उसमें दूसरा छोर भी संतुलित पाओगे। सम्राट होकर वह सिर्फ सम्राट नहीं हो जाता; वह किसी भी क्षण छोड़ कर चल सकता है। और भिक्षु हो कर वह भिक्षु नहीं हो जाता, दीन नहीं हो जाता। भिक्षु में भी उसका गौरव मौजद होता है और सम्राट में भी उसका शांत चित्त मौजद होता है। भिक्ष और सम्राट से कछ फर्क नहीं पड़ता। ऐसे व्यक्ति को 'विशेष न अस्ति' कोई चीज विशेष नहीं है। फिर वह समाज में हो कि तथाता का सुत्र-सेत हे 325
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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