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________________ दिए गये उससे ज्यादा संबंध है। यह किसी धनलोलुप के लिए कही गई बात होगी। कोई धनलोलुप पास में खड़ा होगा। उसको यह बोध देने के लिए किया होगा। रामकृष्ण की चित्त दशा में तो क्या मिट्टी, क्या सोना ! इतना भी भेद नहीं है कि अब एक हाथ में सोना और एक हाथ में रेत ले कर याद दिलायें। और अगर विवेकानंद ने उनके तकिए के नीचे चांदी के सिक्के रख दिए और वे पीड़ा से कराह उठे तो विवेकानंद के लिए कुछ शिक्षा होगी। कुछ शिक्षा होगी कि सावधान रहना । कुछ शिक्षा होगी कि तू जा रहा है पश्चिम, वहां धन ही धन की दौड़ है, कहीं खो मत जाना, भटक मत जाना! यह जो पीड़ा से कराह उठे हैं, यह तो सिर्फ विवेकानंद पर एक गहन संस्कार छोड़ देने का उपाय है, ताकि उसे याद बनी रहे, यह बात भूले न, यह एक चांटे की तरह उस पर पड़ गई बात कि रामकृष्ण की चांदी छू कर ऐसी पीड़ा हो गई थी। तो चांदी जहर है। कहने से यह बात शायद इतनी गहरे न जाती । कहते तो वे रोज थे। सुनने से शायद यह बात न मन में प्रविष्ट होती, न प्रवेश करती; लेकिन यह घटना तो जलते अंगारे की तरह छाती पर बैठ गई होगी विवेकानंद के । यह विवेकानंद के लिए संदेश था इसमें । सदगुरुओं के संदेश बड़े अनूठे होते हैं। ऐसा उल्लेख है कि विवेकानंद – रामकृष्ण तो चले गये देह को छोड़ कर - विवेकानंद पश्चिम जाने की तैयारी कर रहे हैं। तो वे एक दिन शारदा, रामकृष्ण की पत्नी को मिलने गये। आज्ञा लेने, आशीर्वाद मांगने । तो वह चौके में खाना बना रही थी। रामकृष्ण के चले जाने के बाद भी शारदा सदा उनके लिए खाना बनाती रही, क्योंकि रामकृष्ण ने मरते वक्त कहा आंख खोल कर कि मैं जाऊंगा कहां, यहीं रहूंगा। जिनके पास प्रेम की आंख है, वे मुझे देख लेंगे। तू रोना मत शारदा, क्योंकि तू विधवा नहीं हो रही है, क्योंकि मैं मर नहीं रहा हूं; मैं तो हूं, जैसा हूं वैसे ही रहूंगा। देह जाती है, देह से थोड़े ही तू ब्याही गई थी ! तो सिर्फ भारत में एक ही विधवा हुई है शारदा, जिसने चूड़ियां नहीं तोड़ीं, क्योंकि तोड़ने का कोई कारण न रहा । और शारदा रोई भी नहीं । वह वैसे ही सब चलाती रही । अदभुत स्त्री थी । आ कर ठीक समय पर जैसा रामकृष्ण का समय होता भोजन का, वह आ कर कहती कि 'परमहंस देव, भोजन तैयार है, थाली लग गई है, आप चलें ।' फिर थाली पर बैठ कर पंखा झलती। फिर बिस्तर लगा देती, मसहरी डाल देती और कहती, 'अब आप सो जायें। फिर दोपहर में सत्संगी आते होंगे।' ऐसा जारी रहा क्रम । तो वह परमहंस के लिए - परमहंस तो जा चुके – भोजन बना रही थी । विवेकानंद गये और उन्होंने कहा कि 'मां, मैं पश्चिम जाना चाहता हूं परमहंस देव का संदेश फैलाने । आज्ञा है ? आशीर्वाद है?' तो शारदा ने कहा कि 'विवेकानंद, वह जो छुरी पड़ी है, उठा कर मुझे दे दे।' सब्जी काटने की छुरी ! साधारणतः कोई भी छुरी उठा कर देता है तो मूठ अपने हाथ में रखता है, लेकिन विवेकानंद ने फल तो अपने हाथ में पकड़ा और मूठ शारदा की तरफ करके दी। शारदा ने कहा : 'कोई जरूरत नहीं, रख दे वहीं । यह तो सिर्फ एक इशारा था जानने के लिए। तू जा सकता है।' विवेकानंद ने कहा: 'मैं कुछ समझा नहीं।' शारदा ने कहा: 'आशीर्वाद है मेरा, तू जा सकता है। यह मैं जानने के लिए देखती थी कि तेरे मन में महाकरुणा है या नहीं। साधारणतः तो आदमी मूठ अपने हाथ में रखता है कि हाथ कट जाये और छुरे की धार दूसरे की तरफ करता है कि पकड़ लो, तुम कटो तो कटो, हमें क्या 14 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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