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________________ मेरा चित्र तो प्रतीक हुआ। तुम मेरे चित्र पर आंखें लगाये थे, यह तो बहाना हुआ। मूर्तियां सभी बहाने हैं। उनके बहाने तुम अपने ही अचेतन में डुबकी लगाते हो। मूर्ति को सतत देखते-देखते, देखते-देखते तुम्हारा जो साधारण चेतन मन है, वह शांत हो जाता है और तुम्हारे अचेतन से खबरें शुरू हो जाती हैं। स्वभावतः वे खबरें तुम्हें ऐसी लगती हैं जैसे कहीं और से आयी हैं। क्योंकि तुम इन गहराइयों से परिचित ही नहीं हो कि ये तुम्हारी हैं। तुम्हारा ही अंतःकरण बोला है। तुम ही बोले हो। मगर ऐसी जगह से बोले हो जिस जगह से तुमने अब तक अपना कोई परिचय नहीं बनाया । तुम्हारे भीतर ही बहुत से प्रदेश अछूते पड़े हैं जिन तक तुम कभी नहीं गये। तुमने अपने पूरे भवन को कभी जांचा-परखा नहीं; पोर्च में ही डेरा डाले पड़े हो । सोचते हो यही भवन है। भीतर द्वार पर द्वार खुलते हैं। गहराइयों पर गहराइयां हैं। तलघरों पर तलघरे हैं। यह तुम्हारे ही भीतर से आयी आवाज है। जब भक्त मूर्ति के सामने तल्लीन हो कर खड़ा हो जाता है और आवाज सुनता है। सूफी फकीर कहते हैं: परमात्मा बोला। परमात्मा नहीं बोलता है। लेकिन एक अर्थ में परमात्मा ही बोलता है । तुम्हारे भीतर की अंतरतम गहराई परमात्मा ही है। यह मूर्ति तो बहाना है। यह कीर्तन और भजन और प्रार्थना तो बहाना है । यह तो सिर्फ इस बात के लिए सहारा है कि तुम्हारा सक्रिय मन निष्क्रिय हो जाये। क्योंकि तुम्हारे सक्रिय मन के कारण तुम्हारी गहराई की आवाज आती भी है तो भी तुम तक पहुंच नहीं पाती - तुम इतने शोरगुल से भरे हो ! वह धीमी सी आती हुई आवाज तुम्हारे तूतीखाने में खो जाती है। वहां नगाड़े बज रहे हैं। प्रभु फुसफुसाता है; चिल्लाकर नहीं आवाज देता। और चिल्लाकर भी दे, तो भी तुम सुनोगे नहीं। क्योंकि तुम्हारे कान इतने शोरगुल से भरे हैं, तुम्हारे भीतर इतने विचारों की तरंगें चल रही हैं; तुम इतने व्यस्त हो ! तुमने कभी खयाल किया, कभी अचानक तुम शांत हो कर बैठो तो दीवाल पर लगी घड़ी की टिक-टिक सुनाई पड़ने लगती है, अपने हृदय की धड़कन सुनाई पड़ने लगती है। श्वास का आना-जाना दिखाई पड़ने लगता है। शांत बैठे हो तो सूई भी गिर जाये तो सुनाई पड़ती है। सांप भी सरक जाये बगिया में कहीं, तो सरसराहट मालूम हो जाती है। हवा का जरा-सा झोंका पत्तियों को कंपा जाये तो उसका कंपन भी तुम्हें बोध में आ जाता है। लेकिन जब तुम व्यस्त हो, चिंता से घिरे हो, विचारों के बादलों में दबे हो, तब पहाड़ भी बिखर जायें, आकाश में गर्जन होता रहे बिजलियों का, तो भी तुम्हें पता नहीं चलता । तुम्हें पता उसी मात्रा में चलता है, जिस मात्रा में तुम शांत होते हो। तो ये तीस मिनट तक तुम मेरे चित्र पर ध्यान करते रहे, तुम शांत हो गये। तुम एकटक बंधे रह गये। तुम्हारे चित्त से और सारे विचार दूर हो गये; मेरा चित्र ही रह गया । तुम उसी में मंत्र रहे, डूबे रहे, डूबे रहे, तब तुम्हारे भीतर तुम्हारे ही गहरे अचेतन से कुछ आवाज उठनी शुरू हो ग लेकिन वह लगेगी बाहर से आ रही है । और चूंकि तुम इतने जोर से व्यस्त थे मेरे चित्र में कि उस आवाज ने उस चित्र का सहारा ले लिया; उसी चित्र के सहारे वह तुम पर प्रकट हो गयी। यह सिर्फ सहारा है। मैं नहीं बोला हूं। तुम्हीं बोले हो । और प्रमाण है कि तुम बोले ठीक जगह से बोले हो । क्योंकि तुमने पूछा कि 'यह भ्रम तो नहीं है? और आपने कहा : हां, भ्रम ही है।' अगर मैं कह देता कि हां, सच है, भ्रम नहीं, तो डर था कि 234 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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