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अभी तो तुमने जो भी जाना है इन हाथों से, वह ऐसा है जो आता है और चला जाता है।
स्वर्ण दिन आये क्या, लो गये। सुख आ भी नहीं पाता और चला जाता है। मिट्टी की इस देह से तो जो भी पकड़ में आता है, वह क्षणभंगुर है।
___स्वर्ण दिन आये क्या, लो गये! इधर आये नहीं कि उधर गये नहीं। मेहमान टिकता कहां है? एक द्वार से आता, दूसरे द्वार से निकल जाता है।
लेकिन परमात्मा ऐसा मेहमान है जो आया तो आया; फिर जाता नहीं। तो उसके लिए कुछ नये द्वार बनाने पड़ें। ये तुम्हारे द्वार जिनसे तुमने संसार के मेहमानों का स्वागत किया है, आते-जाते स्वागत और विदा दी है, ये द्वार काम न आएंगे। चैतन्य का कोई नया द्वार खोजना पड़े।
न लौटे सपनों के अनुमान
खोजने हरियाली जो गये इस जगत में तुम जिस हृदय से धड़क रहे हो, उसमें कभी हरियाली मिली? उससे कभी हरियाली मिली?
न लौटे सपनों के अनुमान
खोजने हरियाली जो गये कभी कुछ लौटा? मरुस्थल ही हाथ आता है।
परमात्मा परम हरियाली है, शाश्वत हरियाली है। उस शाश्वत के स्वाद के लिए तुम्हें भी शाश्वत को जन्माना पड़ेगा। तुम थोड़े परमात्मा जैसे होने लगो, तो ही परमात्मा को पा सकोगे। और परमात्मा जैसा होने का अर्थ है, तुम्हारा अहंकार-भाव विसर्जित हो, तुम्हारी सीमा टूटे, तुम्हारी परिधि बिखरे, तुम्हारा केंद्र मिटे। तुम ऐसे हो जाओ जैसे नहीं हो। तुम्हारे भीतर से 'नहीं' समाप्त हो जाये। तुम्हारे भीतर 'हां' का स्वर एकमात्र रह जाये।
आस्तिक का मैं यही अर्थ करता हूं। आस्तिक का मेरा यह अर्थ नहीं है कि जो ईश्वर को मानता है। क्योंकि करोड़ों लोग ईश्वर को मानते हैं, और मैंने उनमें कोई आस्तिकता नहीं देखी। मंदिर जाते, मस्जिद जाते, गुरुद्वारा जाते-और आस्तिकता से उनका कोई संबंध नहीं है। मैंने कुछ ऐसे नास्तिक भी देखे हैं जो आस्तिक हैं; जिन्होंने ईश्वर की बात ही कभी नहीं उठायी। फिर आस्तिक की परिभाषा ईश्वर से नहीं करनी चाहिए। मैं आस्तिक की परिभाषा करता हूं जिसने जीवन को 'हां' कह दिया, और 'ना' कहना बंद कर दिया। कहो तथाता, कहो साक्षी भाव, कहो स्वीकार, परम स्वीकार। जिसने जीवन को 'हां' कहना सीख लिया। उसका 'ना' जैसे-जैसे गिरता है, वैसे-वैसे अहंकार गिरता है। तुम्हारा अहंकार तुम्हारे कहे गये नकारों का ढेर है। तुमने जहां-जहां 'ना' कहा है, वहीं-वहीं अहंकार की रेखा खिंची है। 'नहीं' यानी नास्तिकता; 'हां' यानी आस्तिकता। ___ तुम जीवन को 'हां' कहो, बेशर्त 'हां' कहो। और तुम पाओगे, दिल की लगी पूरी होती है, निश्चित होती है। होने के ही लिए लगी है। नहीं तो लगती ही न।
यह जो प्यास तुम्हारे भीतर है परमात्मा को पाने की, यह होती ही न, अगर परमात्मा न होता।
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- अष्टावक्र: महागीता भाग-4
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