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घेरता हर ओर से आ कर एक अजनबी भंवर का डर जल-महल में थरथराती हैं पांव पायल में बंधी नावें! नाव का तो धर्म है तिरना है जिसे रुकना नहीं आता रुक गयी तो कांपती है खुद चल पड़ी तो नीर थर्राता मीन-सी अब छटपटाती हैं
जाल से जल में बंधी नावें। तुमने देखा, नाव बंधी हो, जंजीर से बंधी हो किनारे से, लहर आती है तो नाव थरथरा जाती है! ऐसी तुम्हारी दशा है। बंधे हो वासना की जंजीर से, क्षुद्र के किनारे से। चल पड़ो तो विराट तुम्हारा। बंधे रहो तो बस किनारे की दरिद्रता तुम्हारी; चल पड़ो तो सारा सागर तुम्हारा।
नाव का तो है धर्म तिरना है जिसे रुकना नहीं आता रुक गयी तो कांपती है खुद
चल पड़ी तो नीर थर्राता। रुक गये तो तुम खुद कंपोगे। चल पड़े तो तुम्हारे कंपने की तो बात ही क्या, सारा अस्तित्व तुम्हारे चारों तरफ कंपता रहे—तुम निष्कंप बने रहोगे। तुम्हारे चलने में, तुम्हारी गति में, तुम्हारी गत्यात्मकता में, तुम्हारी जीवंतता में उपलब्धि है। ___चुनौती स्वीकार करो। यह आवाहन है विराट के शिखर को छूने का। और जब तक तुम्हारे भीतर का हिमालय, तुम्हारे भीतर के हिमालय के शिखर अनजीते पड़े हैं, तब तक और सब जीत व्यर्थ है। वहीं जीतना है! आत्मविजेता बनना है।
हरि ॐ तत्सत्!
धर्म अर्थात सन्नाटे की साधना
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