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________________ हैं: हम राजी हैं फिक्र भी छोड़ने को, मगर फिर शांत होगा कि नहीं? वे फिक्र छोड़ते ही नहीं। अगर वे राजी भी हो जाते हैं तो भी राजी कहां हैं? महीने-पंद्रह दिन बाद फिर आ जाते हैं। वे कहते हैं: आपने कहा था फिक्र छोड़ दो, हमने छोड़ भी दी, मगर अभी तक शांत नहीं हआ। अब वे यह भी नहीं सोचते कि क्या कह रहे हैं। 'छोड़ भी दी।' अगर छोड़ ही दी तो अब कौन कह रहा है कि शांत नहीं हुआ? छोड़ दी तो छोड़ दी-अब हो या न हो। अब बात ही खतम हुई। नहीं, लेकिन छोड़ी नहीं। यह भी तरकीब थी। उन्होंने सोचा चलो, यह तरकीब शायद काम कर जाये। शांति की फिक्र छोड़ने से शायद शांति हो जाये। तो ऐसे पास में सरका कर रख दी। मगर नजर उसी पर लगी हुई है। ____ अहंकार तो कैसे चुनाव करेगा अचुनाव का? अहंकार ही तो सब चुनाव कर रहा है। वह कहता है। ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए; इसमें सुख है, इसमें दुख है; यह शुभ, यह अशुभ; यह पुण्य, यह पाप; ऐसा करो, ऐसा मत करो। अहंकार तो प्रतिपल भेद खड़े कर रहा है। अब तुमने मेरी बात सुनी या अष्टावक्र को सुना। और तुमने सुना कि निर्विकल्प हो जाओ, चुनाव-रहित। छोड़ दो चुनाव करना। द्वंद्व को भूल जाओ। तुमने कहाः चलो ठीक, यह भी कर लें। तुमने सुने अष्टावक्र के वचन कि जो द्वंद्वरहित हो जाता है, परम आनंद को उपलब्ध हो जाता है। लोभ पैदा हुआ। तुमने कहाः परम आनंद तो हमको भी होना ही चाहिए। अष्टावक्र कहते हैं, सच्चिदानंद ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है, और हम अभी बैठे क्या करते रहे तो चलो, यह भी करके देख लें, अचुनाव कर लें। लोभ है यह। और लोभ तो अहंकार का ही हिस्सा है। बहुत लोग लोभ के कारण धार्मिक हो जाते हैं। सोचते हैं स्वर्ग मिलेगा, अप्सराएं मिलेंगी, शराब के चश्मे मिलेंगे, मजा करेंगे! तुम्हारा स्वर्ग कहीं बाहर नहीं है। तुम्हारा स्वर्ग कुछ ऐसा नहीं है कि कहीं राह देख रहा है तुम्हारी और तुम वहां पहुंचोगे। और न ही नर्क कहीं और है। दिनेश ने एक छोटी-सी कहानी भेजी है, महत्वपूर्ण है। ___ अरबी रवायत है कि एक सदगुरु ने अपने शिष्य को चिलम सुलगाने के लिए आग लाने को कहा। शिष्य ने प्रयास किया, लेकिन वह कहीं भी आग न पा सका। उसने गुरु को आ कर कहा, आग नहीं मिलती। तो सदगुरु ने झल्लाने का अभिनय करते हुए कहा : जहन्नुम में मिल जाएगी। वहां तो मिलेगी न, वहां से ले आ! और कथा कहती है कि वह शिष्य जहन्नुम पहुंच गया-दोजख की आग लाने। द्वारपाल ने उससे कहाः भीतर जाओ और ले लो, जितनी चाहिए उतनी ले लो। शिष्य जब अंदर गया तो बड़ा हैरान हुआ, वहां भी आग न मिली! जहन्नुम से भी खाली हाथ लौटना पड़ेगा! लौट कर उसने द्वारपाल से कहाः हमने तो सुना था वहां आग ही आग है, और यहां तो आग का कोई पता नहीं! यहां भी आग नहीं मिली तो अब क्या होगा? अब कहां आग खोजेंगे? द्वारपाल ने कहा यहां आने वाला हर इंसान अपनी आग अपने साथ लाता है! नर्क भीतर है और स्वर्ग भी। नर्क भविष्य में नहीं है और न स्वर्ग भविष्य में है। अभी और यहीं! तुम्हारी दृष्टि...! तुम जहां जाते हो, अपना स्वर्ग अपने साथ ले जाते हो। तुम जहां जाते हो, अपना नर्क अपने साथ ले जाते हो। तुम्हारी मर्जी, नर्क में रहना हो तो तुम कहीं भी रहोगे, नर्क में रहोगे। 192 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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