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घूंघट चला भी जाये, वस्त्र का घूंघट चला भी जाये, तो भी प्राणों पर घूंघट में रहने की ही आकांक्षा होती है स्त्री की । वह हर किसी के सामने उघड़ नहीं जाना चाहती। वह तो किसी एक के सामने उघड़ेगी, जिससे प्रेम बन जायेगा ।
लेकिन लल्लाह नग्न खड़ी हो गयी। बड़ी हिम्मतवर स्त्री रही होगी। स्त्री ही न रही होगी । लल्लाह की गिनती पुरुषों में होनी चाहिए ।
और जैनों ने वैसा ही किया भी है। जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में एक स्त्री थी, मल्लीबाई । लेकिन जैनों ने उसका नाम भी बदल दिया। वे कहते हैं : मल्लीनाथ। वह नग्न रही । जैन ठीक कहते हैं। अब उसको स्त्री गिनना ठीक नहीं है। स्त्रैण चित्त ही नहीं है। मल्लीबाई क्या खाक कहो ! मल्लीनाथ ठीक । पुरुष का भाव है।
ऐसा स्मरण बना रहे और तुम अपने को ठीक से कस लो तो तुम्हारा मार्ग साफ हो जायेगा। अगर तुम्हें लगता हो, बिना सहारे तुम अपने को समर्पित न कर सकोगे तो भक्ति । अगर तुम्हें लगे की कोई जरूरत नहीं, तुम अपने पैरों पर खड़े हो सकते हो...। इतना ही खयाल रखना कि यह अपने पैरों पर खड़ा होना अहंकार की घोषणा न हो। इसमें अहंकार न बोले । बस फिर ठीक। तो फूटा है। तुम उसे कितना ही भरो, कभी भर न पाओगे। कुएं में डालोगे, बहुत होगा। जब गागर वापिस लौटेगी तो खाली आयेगी।
जगह-जगह से गागर फूटी राम, कहां तक ताऊं रे !
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ताऊं रे, भाई ताऊं रे ! पार करूं पनघट की दूरी चलूं गगर भर-भर कर पूरी जब घर की चौखट पर पहुंचूं बिलकुल छंछी पाऊं रे
जगह-जगह से गागर फूटी राम, कहां तक ताऊं रे ! अहंकार फूटी गागर है। कभी भरता नहीं। किसी का कभी भरा नहीं । अहंकार के कारण अगर अकड़ कर खड़े रहे तो खाली रह जाओगे। अगर साक्षी भाव के कारण खड़े हुए... ।
क्या फर्क है ? फर्क है : अहंकार में कर्ता का भाव होता है और साक्षी में कर्ता का कोई भाव नहीं होता। अहंकार में लगता है मैं खड़ा हूं: अपने पैरों पर । साक्षी में लगता है : मैं कौन हूं ? परमात्मा ही खड़ा है। मैं हूं ही नहीं। अस्तित्व खड़ा है। अहंकार तो सदा रोता ही रहता है।
जैसा गाना था गा न सका ।
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गाना था वह गायन अनुपम क्रंदन दुनिया का जाता थम अपने विक्षुब्ध हृदय को भी मैं
अष्टावक्र: महागीता भाग-4