SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 4 असली भगवान है। लेकिन भक्त यह मानता है कि हम अभी क ख ग पढ़ रहे हैं। हम अबोध हैं। हमें सहारा चाहिए। धीरे-धीरे सहारे से चलेंगे, बैसाखी से चल कर एक दिन इस योग्य हो जायेंगे, तो बैसाखी छोड़ देंगे। एक घड़ी आती है जब भक्त और भगवान दोनों मिट जाते हैं। लेकिन भक्ति की यात्रा में वह अंत में आती है और साक्षी की यात्रा में प्रथम आती है। साक्षी कहता है : कोई भगवान नहीं। इसलिए तो बुद्ध और महावीर कहते हैं: कोई परमात्मा नहीं । ये साक्षी के धर्म हैं। इसलिए हिंदू और ईसाई को बड़ी अड़चन होती है, मुसलमान को बड़ी अड़चन होती है कि यह बौद्ध धर्म भी कैसा धर्म है ! यह कोई धर्म हुआ जिसमें भगवान नहीं? वे साक्षी के धर्म हैं। वहां भगवान को पहले कदम पर छोड़ देना है। बुद्ध कहते हैं : जो अंतिम कदम पर होना है उसको पहले से क्यों पकड़ना ? वे कहते हैं : इसे अभी छोड़ दो। कुछ के लिए वह भी बात जमती है। अगर तुम इतने हिम्मतवर हो कि अभी ही सहारा छोड़ सकते हो तो अभी छोड़ दो। तुमने देखा, छोटे बच्चे घसिटते हैं, चलते हैं। कोई बच्चा दो साल में चलने लगता है, कोई तीन साल में चलता है, कोई चार साल में चलता है, किसी को और भी देर लग जाती है। बच्चे-बच्चे में फर्क है। जिनकी हिम्मत है वे अभी छोड़ दें। जिनको लगे हम न छोड़ पायेंगे या जिनको लगे छोड़ना हमारा धोखे का होगा, या जिनको लगे कि छोड़ना तो हमारा केवल बहाना है न खोजने का... बेईमानी मत करना अपने साथ । क्योंकि बहुत हैं ऐसे जो कहेंगे, 'क्यों लें सहारा? हम तो बिना सहारा चलेंगे !' और चलते ही नहीं। बैठे हैं, चलते इत्यादि नहीं। लेकिन सहारे की बात कहो तो वे कहते हैं, 'क्यों लें • सहारा ? क्यों किसी का सहारा ?" कहीं ऐसा न हो कि न सहारा लेना अहंकार हो। अगर अहंकार के कारण तुम कहते हो, क्यों लें सहारा, तो तुम बड़े खतरे में पड़ोगे । साक्षी के कारण अगर कहते हो कोई सहारे की जरूरत नहीं, तब ठीक है। इन दोनों में भेद करना । अहंकार की अगर यह घोषणा हो... । अधिक अहंकारी ईश्वर को मानने को राजी नहीं होते। यही फर्क है। महावीर ईश्वर को नहीं मानते, चार्वाक भी ईश्वर को नहीं मानते। मार्क्स भी ईश्वर को नहीं मानते, बुद्ध भी ईश्वर को नहीं मानते। पर इनमें कुछ फर्क है। मार्क्स या नीत्शे या चार्वाक - इनका अस्वीकार अहंकार के कारण है। ये कहते हैं : मैं हूं, परमात्मा हो कैसे सकता है ? बुद्ध और महावीर कहते हैं: मैं तो हूं ही नहीं, परमात्मा की जरूरत क्या है? जब मैं ही नहीं हूं...। मैं को मिटाने के लिए परमात्मा का सहारा लिया जाता है। अगर मैं नहीं हूं तो फिर परमात्मा के सहारे की भी कोई जरूरत नहीं है। बीमारी ही नहीं तो औषधि की क्या ज़रूरत ? तो खयाल से देख लेना, अगर बीमारी हो तो औषधि की जरूरत है। 'समर्पण' – दोनों एक ही शब्द का उपयोग करते हैं। लेकिन दोनों के अर्थ अलग हैं। जब भक्त कहता है समर्पण, तो वह कहता है किन्हीं चरणों में। और जब ज्ञानी कहता है समर्पण, तो वह कहता है, यहां कोई नहीं, किससे लड़ रहे ? लड़ना बंद करो। छोड़ो लड़ना । जो है, जैसा है, वैसे में राजी हो जाओ । तू स्वयं मंदिर है 187
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy