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पहला प्रश्न: आपने कहा कि संसार के प्रति तृप्ति और परमात्मा के प्रति अतृप्ति होनी चाहिए। और आपने यह भी कहा कि कोई भी आकांक्षा न रहे; जो है उसका स्वीकार, उसका साक्षी भाव रहे। इन दोनों वक्तव्यों के बीच जो विरोधाभास है, उसे स्पष्ट करने की अनुकंपा करें।
वि
रोधाभास दिखता है, है नहीं । और दिखता इसलिए है कि तुम जो भाषा समझ सकते हो वह सत्य की भाषा
नहीं। और सत्य की जो भाषा है वह तुम्हारी समझ में नहीं आती। जैसे समझो... जो तुम समझ सको वहीं से समझना ठीक होगा।
कहते हैं, प्रेम में हार जीत है। दिखता है विरोधाभास है। क्योंकि हार कैसे जीत होगी ? जीत में जीत होती है। और अगर प्रेम को न जाना हो तो तुम कहोगे, यह तो बात उलटबांसी हो गयी, यह तो पहेली हो गयी। हार में कैसे जीत होगी ? लेकिन अगर प्रेम की एक बूंद भी तुम्हारे जीवन में आयी हो, जरा-सा झोंका भी प्रेम का आया हो, एक लहर भी उठी हो, तो तुम तत्क्षण पहचान लोगे विरोधाभास नहीं है।
प्रेम में हार जाना ही जीत जाना है। जो हारा वही जीता। प्रेम में समर्पण विजय का मार्ग है। लेकिन प्रेम जाना हो तो यह प्रेम की भाषा समझ में आ जायेगी; न जाना हो तो समझने का कोई उपाय नहीं । अगर तुमने तलवार की ही भाषा जानी है, हिंसा से ही परिचय है, दबा-दबा कर ही लोगों को जीता है, तो तुम्हें कोई पता नहीं हो सकता कि झुक कर भी जीता जा सकता है।
ठीक ऐसी ही बात है। परमात्मा के लिए अतृप्ति, महातृप्ति है। संसार में तो तृप्ति भी तृप्ति नहीं है । संसार में तो अतृप्ति ही अतृप्ति है। संसार का स्वभाव जलना है, जलाना है — लपटें ही लपटें हैं।
बुद्ध ने जब अपना राजमहल छोड़ा और उनका सारथी उन्हें समझाने लगा कि आप कहां जाते हैं? कहां भागे जाते हैं? पीछे लौट कर देखें महल - ये स्वर्णमहल, यह सब सुख-शांति, यह तृप्ति का साम्राज्य, यह पत्नी सुंदर, यह बेटा, यह पिता — ये कहां मिलेंगे ? ये सब सुख-चैन ! बुद्ध ने लौट कर देखा और कहाः मैं तो वहां केवल लपटों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखता हूं। सब जल रहा है। न कोई स्वर्णमहल है, न कोई पत्नी है, न कोई पिता है। सब जल रहा है। सिर्फ लपटें ही लपटें हैं! सारथी, बुद्ध ने कहा, तुम लौट जाओ। मैं अब इन लपटों में वापिस न जाऊंगा।
सारथी ने बड़ी कोशिश की। बूढ़ा आदमी था और बचपन से बुद्ध को जाना था, बड़े होते देखा था; लगाव भी था। समझाया बुझाया, चुनौती दी । आखिर में कुछ न बना तो उसने चोट की। उसने