SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - 'मैं अद्वैत आत्मज्ञान द्वारा कृतार्थ हुआ हूं, ऐसी बुद्धि भी जिस ज्ञानी को उत्पन्न नहीं होती...।' जिसमें बुद्धि ही उत्पन्न नहीं होती; जिसमें विचार ही उत्पन्न नहीं होता-वही कृतार्थ हुआ है। जो अवक्तव्य है। जो इस तरह की कोई घोषणा नहीं करता। बुद्ध से लोग जा कर पूछते हैं कि ईश्वर है? बुद्ध चुप रह जाते हैं। बुद्ध से किसी ने एक दिन सुबह आ कर पूछा, आपको ज्ञान हुआ? बुद्ध चुप रह गये। उस आदमी ने कहा, आप साफ-साफ कह दें। हुआ हो तो हां कह दें; न हुआ हो तो ना कह दें। उलझन में क्यों डालते हैं? बुद्ध फिर भी चुप रहे। वह आदमी चला गया। वह यही सोच कर गया कि हुआ नहीं है, तो कहने की हिम्मत नहीं है। उसने बुद्ध के शिष्यों को कहा कि अभी कुछ हुआ नहीं ज्ञान इत्यादि, क्योंकि मैं पूछ कर आ रहा हूं। अगर हुआ होता तो कहते कि हुआ है। शिष्य हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुम पागल हो। हुआ है इसीलिए चुप रह गये। कहने को क्या है? __और तब एक बड़ा उपद्रव संसार में खड़ा होता है। तुम उन्हीं की सुनते हो जो दावेदार हैं। जो जितने जोर से दावा करता है, उसकी ही तुम मान लेते हो। और परम ज्ञान की अवस्था में कोई दावा नहीं होता-कोई दावा नहीं है। परम ज्ञानी के पास तो तुम तभी टिक पाओगे जब तुम गैर-दावेदार को समझने में सफल और कुशल हो जाओगे। परम ज्ञानी के पास तो तुम तभी टिक पाओगे जब ज्ञानी तुमसे कहे कि मैं अज्ञानी हूं और तो भी तुम समझने में सफल रहो। ज्ञानी तुमसे कभी न कहे कि मैं जानता हूं, तो भी तुम उसकी सन्निधि के लिए आतुर रहो तो ही तुम किसी ज्ञानी का सत्संग पा पाओगे। अन्यथा तुम किसी धोखेधड़ी में पड़ जाओगे; किसी दावेदार की उलझन में आ जाओगे। दावेदार बहुत हैं। जिनकी उपलब्धि है, वे बहुत थोड़े हैं। और तुम्हारे पास एक ही उपाय है जानने काः 'कौन जोर से चिल्ला रहा है। कौन पीट रहा टेबल को जोर से?' जो जितने जोर से चिल्लाता है, तुम कहते हो जरूर...अगर हुआ न होता तो इतने जोर से कैसे चिल्लाता? जिसको हो जाता है, वह चिल्लाता ही नहीं। निवेदन करता है, दावा नहीं करता। उसके प्राणों में प्रार्थना होती है, आग्रह नहीं होता। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि 'सत्याग्रह' शब्द अच्छा नहीं है। सत्य का कोई आग्रह होता ही नहीं। सब आग्रह असत्य के होते हैं। इसलिए तो महावीर जैसे परम ज्ञानी ने स्यादवाद को जन्म दिया। स्यादवाद का अर्थ होता है, अनाग्रह। तुम पूछो उनसे ईश्वर है? वे कहते हैं : 'स्यात्। हो, न हो।' स्यात् ! यह तो अज्ञानी की भाषा मालूम पड़ती है। यही तो महावीर के विरोधियों ने उन पर आरोप लगाया है कि यह तो अज्ञानी की भाषा हो गयी। तुमको पक्का पता नहीं! तुम कहते होः 'स्यात्। शायद।' अरे पता हो तो हां कह दो, न पता हो तो ना कह दो। यह 'शायद' क्या बात हुई ? या तो ईश्वर है या नहीं है। महावीर कहते हैं कि शायद है, शायद नहीं है। कठिन हो गयी बात। तुम वैसे ही डांवाडोल हो, और ये महापुरुष डांवाडोल किये दे रहे हैं। तुम वैसे ही अनिश्चित थे, अब यह और महा अनिश्चय की घोषणा हो गयी। तुम इस आशा में आये थे कि महावीर के पास निश्चय हो जायेगा, पकड़ लेंगे किसी धारणा को, घर लौटेंगे संपत्ति लेकर—ये और मुश्किल में डाले दे रहे हैं। थोड़े-बहुत मजबूती से आये थे, वह भी डांवांडोल कर दिया। ये कहते 152 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy