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________________ हैं। क्या-क्या हल करोगे ? मनुष्य जाति हल करने में लगी है। दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। एक, जो समस्याओं को अलग-अलग हल कर रहे हैं; और एक, जो समस्याओं के मूल के प्रति जाग रहे हैं। जो मूल के प्रति जागता है, जीत जाता है। देख लो खड़े हो कर। जरा भी चुनाव मत करो। क्रोध है— सही, रहने दो; तुम दूर खड़े हो कर क्रोध को देखने वाले बन जाओ। कभी द्रष्टा का थोड़ा स्मरण करो । काम है, लोभ है— द्रष्टा का स्मरण करो। तुम चकित होओगे। तुम धन्य-भाव से भर जाओगे। जैसे ही तुम क्रोध को गौर से देखोगे, क्रोध जाने लगा। तुम्हारे देखते-देखते क्रोध का धुआं विलीन हो जाता है और अक्रोध की परम शांति छूट जाती है। तुम्हारे देखते-देखते वासना कहां खो गयी, पता नहीं चलता — और एक निर्वासना का रस बहने लगता है। 'साक्षी के ज्ञान से कृतार्थ अनुभव कर गलित हो गयी है बुद्धि जिसकी...।' यह शब्द 'गलितधीः' बड़ा महत्वपूर्ण है। यह ध्यान की परिभाषा है । यह अनिर्वचनीय का निर्वचन है। जो नहीं कहा जा सकता है, उसकी तरफ बड़ा गहरा संकेत है। गलितधीः - जिसकी बुद्धि गल गयी। ध्यान यांनी गलितधीः - जिसकी बुद्धि गल गयी। बुद्धि क्या है ? सोच-विचार, ऊहापोह, प्रश्न-उत्तर, चिंतन-मनन, तर्क-वितर्क, गणित - भाग । बुद्धि का अर्थ है : मैं हल कर लूंगा। 'बुद्धि गल गयी' का अर्थ है: मेरे हल किये हल नहीं होता है। सच तो यह है जितना मैं हल करना चाहता हूं उतना उलझता है । मेरे हल करने से हल तो होता ही नहीं; मेरे हल करने से ही उलझन बढ़ी जा रही है। गलितधीः का अर्थ है कि मैं अपने को हटा लेता हूं; मैं हल न करूंगा; जो है, जैसा है, रहने दो। मैं बीच से हटा जाता हूं। और चमत्कार घटित होता है: तुम्हारे हटते ही सब हल हो जाता है। क्योंकि मौलिक रूप से तुम्हीं कारण हो उलझाव के । कभी तुमने देखा कि जिस समस्या के साथ तुम जुड़ जाते हो वहीं हल मुश्किल हो जाता है ! ऐसा समझो, किसी डाक्टर की पत्नी बीमार है। आपरेशन करना है। बड़ा सर्जन है डाक्टर, लेकिन अपनी पत्नी का आपरेशन न कर सकेगा। क्या अड़चन आ गयी ? न मालूम कितनी स्त्रियों का आपरेशन किया है! कभी हाथ न कंपे। अपनी पत्नी को टेबल पर लिटाते ही हाथ कंपते हैं। क्यों ? • अपनी है! जुड़ गया। एक तादात्म्य बन गया : 'यह स्त्री मेरी पत्नी है, कहीं मर न जाए! कहीं भूल-चूक न हो जाए ! आखिर मैं आदमी ही हूं! बचा पाऊंगा, न बचा पाऊंगा!' दूसरी स्त्रियों के आपरेशन किए थे, तब ये सब बातें नहीं थीं। तब वह शुद्ध सर्जन था । तब कोई तादात्म्य न था । तब बड़ी तटस्थता थी। तब वह सिर्फ अपना काम कर रहा था। कुछ लेना-देना न था । बचेगी न बचेगी, बच्चों का क्या होगा, क्या नहीं होगा - यह सब कोई चिंता न थी । वह बाहर था । उसने अपने को जोड़ा नहीं था । इस पत्नी के साथ उसने अपने को जोड़ लिया : 'यह मेरी है।' बस, यह मेरे के भाव ने समस्या खड़ी कर दी। तो बड़े से बड़े सर्जन को भी अपने बच्चे या अपनी पत्नी का आपरेशन करना हो, तो किसी और सर्जन को बुलाना पड़ता है, चाहे नंबर दो के सर्जन को बुलाना पड़े, उससे कम हैसियत का हो सर्जन; लेकिन खुद हट जाना पड़ता है, क्योंकि तादात्म्य है। शून्य की वीणा : विराट के स्वर 145
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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