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________________ उसने जोर से एक धौल तुम्हारी पीठ पर जमायी । क्रोध आ ही रहा था, तुमने लौट कर देखा अपना मित्र है, बात खत्म हो गयी। क्रोध आ ही रहा था, आ ही गया था, नाक पर खड़ा था। लौट कर देखा होता कि कोई अजनबी है तो तुम जूझ ही पड़े होते । धौल तो धौल है, मित्र ने मारी कि दुश्मन ने मारी, उसमें कुछ फर्क नहीं है। तुम भी फर्क नहीं कर सकते जब तक पीछे लौट कर न देखो। क्या कर सकते हो ? कि तुम ऐसे ही खड़े रहो और तुम तय करो कि दुश्मन ने मारी कि दोस्त ने, कैसे फर्क करोगे ? क्रोध उठेगा। लौटकर देखोगे दोस्त है, तो बात बदल गयी। क्या गया ? स्वीकार हो गया । मित्र है, प्रेम में मारी है। दुश्मन है, अस्वीकार हो गया । क्रोध उबलने लगा। चोट तो वही की वही है । तुमने देखा, मित्र एक-दूसरे को गाली देते हैं, कोई नाराज नहीं होता । सच तो यह है, मित्रता तब तक मित्रता ही नहीं होती जब तक गाली का लेन-देन न होने लगे। तब तक कोई मित्रता है ? किसी से पूछो, कैसी मित्रता है ? अगर वह कहे गाली का लेन-देन है, तब फिर समझो कि पक्की है। होना भी चाहिए ठीक यही । क्योंकि पक्की मित्रता का अर्थ ही यह है कि जिन बातों से साधारणतः शत्रुता हो जाती थी, उनसे भी अब शत्रुता नहीं होती । गाली भी दे देता है तो भी अपना है। कोई अड़चन नहीं है । स्वीकार है। सच तो यह है, मित्र गाली देता है, उसमें भी रस आता है कि मित्र ने गाली दी । ध्यान रखता है। भूल नहीं गया। अभी भी मैत्री कायम है। वही गाली, वे ही शब्द, किसी और ओंठ से आते हैं तो बस अड़चन हो जाती है। जहां तुम स्वीकार कर लेते हो, वहां फूल खिल जाते हैं। जहां अस्वीकार कर देते हो, वहीं कांटा चुभ जाता है। मैं तुमसे कहता हूं, परम स्वीकार, आत्यंतिक स्वीकार । तुम छोड़ो यह बकवास बदलने की कि यह हो, यह हो, यह न हो। तुम हो कौन ? तुम कह 'परमात्मा को 'अब जो तेरी मर्जी हो वैसा हो !' तुम बदल-बदल कर बदल कहां पाये ? एक और यह मजा है...। एक बूढ़े सज्जन मेरे पास आये, वे कहने लगे कि मुझे क्रोध बड़ा होता है। मैंने कहा, उम्र कितनी है ? 'अठहत्तर साल !' 'कितने दिन से क्रोध से लड़ रहे हो ?'. उन्होंने कहा, 'पूरे जीवन से लड़ रहा हूं।' मैंने कहा, 'अब तो समझो । अठहत्तर साल लड़ने के बाद भी क्रोध नहीं गया है, इसका मतलब क्या है ? इसका मतलब है कि लड़ने से कुछ भी नहीं जाता। तुम अब मरते दम तो स्वीकार कर लो, समर्पण कर दो। इससे साफ जाहिर है कि परमात्मा चाहता है तुममें क्रोध हो और तुम चाहते हो न हो । तो तुम हारोगे, परमात्मा जीत रहा है। अठहत्तर साल हो गये हारते-हारते। अब कब तक इरादा है ?" मैंने कहा, 'तुम मेरी मानो । इसे स्वीकार कर लो। लड़कर तुमने अठहत्तर साल देख लिया, मेरी मान कर एक साल देख लो।' कुछ बात चोट पड़ गयी। बात कुछ लगी । गणित साफ-साफ लगाः अठहत्तर साल! खुद भी सोचा । शायद इस तरह कभी सोचा न होगा पहले कभी। आदमी सोचता ही कहां है ! चलता जाता है, भागता जाता है, करता जाता है । वही - वही करता रहता है जो बार-बार किया है। कुछ परिणाम नहीं होता, फिर भी करता रहता है। निचोड़ता रहता है रेत को कि तेल निकल आयेगा । 126 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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