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- इसलिए मैं तुमसे कहता हूं बार-बार ः तुम जो भी करो, ऐसी तल्लीनता से करना कि उस समय समय मिट जाये। वही ध्यान हो गया। अगर तुम जमीन में गड्ढा खोद रहे हो बगीचे में तो इतनी तल्लीनता से खोदना कि खोदना ही रह जाये। खोदने में ऐसा रस आ जाये, ऐसी तृप्ति मिलने लगे कि जैसे इसके पार कुछ करने को नहीं है, न कुछ होने को है। तो फिर यह गड्डा खोदना ही ध्यान हो गया। यहीं तुम समय के बाहर हो गये और गड्डा खोदते-खोदते ही तुम पाओगे ध्यान की रसधार बहने लगी।
जहां समय गया, वहीं ध्यान। जहां समय शून्य हुआ, वहीं समाधि।
दूसरा प्रश्नः आप बार-बार कहते हैं : 'जो है है। उसके स्वीकार में ही सुख है, शांति है, भगवत्ता है।' मुझे भौतिक तल पर अपने 'जो है' को बुढ़ापे को छोड़ कर स्वीकारना बहुत कठिन नहीं लगता। लेकिन मानसिक तल पर | प हली बात : जो है, है; स्वीकारो या न मेरे पास महत्वाकांक्षा और तज्जनित द्वेष, | | स्वीकारो। जो है, है। उसमें कुछ फर्क अप्रेम, हिंसा, विध्वंसात्मक वृत्ति के सिवाय नहीं पड़ता। तुम्हारे अस्वीकार से भी फर्क नहीं और क्या है! क्या मुझसे अधिक संकीर्ण पड़ता। अगर बुढ़ापा आ गया, आ गया। तुम्हारे चित्तवाला और मुझसे बढ़ कर क्षुद्र आशय अस्वीकार से क्या फर्क पड़ता है ? इतना ही फर्क वाला कोई और हो सकता है? क्या उसे भी पड़ेगा कि बुढ़ापे का जो मजा ले सकते थे वह न स्वीकारूं? और क्या यह संभव है? ले पाओगे। बुढ़ापे में जो एक शालीनता हो
सकती थी, वह न हो पायेगी। बुढ़ापे में जो एक प्रसाद हो सकता था, वह खंडित हो जायेगा। बुढ़ापा तो नहीं हट जायेगा। जो है, है। तुम्हारे अस्वीकार करने से मिटता कहां? बदलता कहां? तुम्हारे अस्वीकार करने से कुछ भी तो नहीं होता! तुम्हीं खुद कुछ और गंवा देते हो अस्वीकार में, पाते क्या हो?
जिस व्यक्ति ने अपने वार्धक्य को, अपने बुढ़ापे को परिपूर्ण भाव से स्वीकार कर लिया है, तुम उसके चेहरे पर एक सौंदर्य देखोगे जो कि जवान के चेहरे पर भी नहीं होता। जवानी के सौंदर्य में एक तरह का बुखार है, उत्ताप है। बुढ़ापे के सौंदर्य में एक शीतलता है। जवानी के सौंदर्य में वासना की तरंगें हैं, उद्वेलित चित्त है, चंचलता है। जवानी के सौंदर्य में एक तरह की विक्षिप्तता है, ज्वर है। होगा ही। एक तरह का तूफान है, आंधी है।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4