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नांत शांत का क्या होगा संबोधन अचिर भूत में, व्यक्त भूति में,
चिर अवधूत निरंजन! एक ही छिपा है!
रूप-अरूप नहीं प्रतिद्वंद्वी
बंधा बिंब से दर्पण! हम और तुम ऐसे बंधे हैं जैसे बिंब का दर्पण, दर्पण का बिंब। तुम खड़े हो जाते हो दर्पण के सामने, तुम अलग दिखाई पड़ते हो, दर्पण में बनता प्रतिबिंब अलग दिखाई पड़ता है; तुम हट जाओ, प्रतिबिंब हट गया! तुम और तुम्हारा प्रतिबिंब दो नहीं हैं; एक ही है।
रूप-अरूप नहीं प्रतिद्वंद्वी
बंधा बिंब से दर्पण! जैसे तुम्हारा प्रतिबिंब तुमसे बंधा है, ऐसे ही परमात्मा संसार से बंधा है; देह आत्मा से बंधी है; मैं तू से बंधा है। यहां जहां तुम्हें द्वैत दिखाई पड़ रहा है रात दिन से बंधी है, जीवन मौत से बंधा है। यहां सब बंधा है, इकट्ठा है। थोड़े गौर से देखोगे तो तुम एक को ही पाओगे। उस एक को पा लेने वाला व्यक्ति ही खेद के बाहर हो जाता है।
'जैसे सल्लकी के पत्तों से प्रसन्न हुए हाथी को नीम के पत्ते नहीं हर्षित करते हैं, वैसे ही ये कोई भी विषय आत्मा में रमण करने वाले को कभी नहीं हर्षित करते हैं।'
न जातु विषयाः केपि स्वारामं हर्षयन्त्यमी। सल्लकी पल्लव प्रीतमिवेमं निम्बपल्लवाः।।
जैसे सल्लकी के मीठे पत्तों को हाथी ने चबा लिया हो तो अब तुम लाख उपाय करो; तुम नीम के कड़वे पत्ते चबाने को उसे राजी न कर सकोगे। जिसने स्वाद ले लिया ऊपर का वह नीचे से फिर राजी नहीं होता। जिसने थोड़ा राम का रस ले लिया, काम में उसे रस नहीं आता। जिसे थोड़ी समाधि की झलक मिलने लगी, संभोग व्यर्थ होने लगता है। जिसे थोड़ी ध्यान की हवा आने लगी, धन की पकड़ छूटने लगती है। लेकिन खयाल रखना, विराट पहले आता है, क्षुद्र पीछे जाता है। _ 'जैसे सल्लकी के पत्तों से प्रसन्न हुए हाथी को नीम के पत्ते नहीं हर्षित करते...।' . अब हमारी हालत उलटी हो गई है। तुम्हारे तथाकथित साधु-महात्मा तुम्हें समझाते हैं : छोड़ो संसार को अगर परमात्मा को पाना है। मैं तुमसे कहता हूं : परमात्मा को पाओ अगर संसार को छोड़ना है। फर्क ठीक से समझ लेना। तुमसे कहा जाता है कि व्यर्थ को छोड़ो अगर सार्थक को पाना है। मैं तुमसे कहता हूं : सार्थक का थोड़ा अनुभव करो अगर व्यर्थ को छोड़ना है। व्यर्थ को छोड़ने को तुम्हें राजी किया ही नहीं जा सकता। जिसने सिर्फ नीम के पत्ते ही चखे हों और सल्लकी के स्वादिष्ट पत्तों का जिसे कुछ पता न हो, उससे तुम लाख कहो, उसे भरोसा नहीं आता। उसने तो एक ही स्वाद जाना है; दूसरा हो भी सकता है, यह बात मन में बैठती ही नहीं, श्रद्धा नहीं उपजती। तुम कितना ही कहो,
सहज ज्ञान का फल है तप्ति
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