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हो जायेगा। जैसे पति, परिवार, घर, ये परमात्मा और तुम्हारे बीच आड़ बन सकते हैं! परमात्मा को ऐसी क्षुद्र चीजें रुकावट डाल सकती हैं ? ऐसी व्यर्थ की बातों में मत पड़ना । परमात्मा मिल जाये तो तुम्हारा रस इन चीजों से छूट जाता है । छूट जाता है; छोड़ना नहीं पड़ता । फल का अर्थ होता है: अपने से हो जाता है; करना नहीं पड़ता ।
वृक्ष पर फल लगते हैं, कोई लगाता है ? लगते हैं, अपने से लगते हैं । तुम्हारी किसी चेष्टा परिणाम नहीं हैं। तुम खींच-खींच कर फल नहीं लाते हो। और बाजार से ला कर तुम फल वृक्षों पर लटका दो तो तुम किसको धोखा दे हो ? फल सत्य नहीं हैं। तो कोई आदमी संसार से चला जाये, बैठ जाये गुफा में, ऊपर से दिखे बड़ा शांत है- - फल बाजार से खरीद लाया है—भीतर तो बाजार का कोलाहल होगा।
बायजीद के पास एक युवक आया और उसने कहा कि मुझे अपने चरणों में ले लें ; मैं सब छोड़ कर आ गया हूं। बायजीद ने कहा: 'चुप, बकवास बंद! भीड़ तू पूरी साथ ले आया है।' वह युवक चौंका। उसने अपने चारों तरफ देखा, पीछे देखा - कोई भी नहीं है, भीड़ कहां है? यह बायजीद पागल तो नहीं है ! उसने कहा : 'कैसी भीड़ ? किस भीड़ की बात कर रहे हैं? मैं सब छोड़ आया, भीड़ भी छोड़ आया। वे लोग मुझे पहुंचाने आये थे गांव के बाहर तक, मेरे परिवार के लोग रोते भी थे, पत्नी छाती पीटती थी; पर कड़ा जी करके सबको छोड़ आया हूं।' बायजीद ने कहा: ' इधर-उधर मत देख; आंख बंद कर, भीतर देख! वे सब वहीं के वहीं खड़े हैं।'
उस युवक ने आंख बंद की, भीड़ मौजूद थी । पत्नी अभी भी रो रही थी भीतर। अभी भी वह अपने को समझा रहा था; कड़ा कर रहा था जी; बच्चों की याद आ रही थी; मित्रों के चेहरे, जिनको पीछे छोड़ आया है, वे खींच रहे थे। तब उसकी समझ में आया। यहां-वहां भीड़ नहीं थी, आगे-पीछे भीड़ नहीं थी - भीड़ भीतर है।
तु भाग जाओ जंगल में । भीड़ अगर बाहर ही होती तो तुम अकेले हो जाते, लेकिन भीड़ भीतर है। भीड़ तुम्हारे चित्त में है । तुम्हारा चित्त ही भीड़ है । तो कभी ऐसा भी होता है कि कोई भीड़ में भी अकेला होता है और कभी ऐसा भी कि कोई अकेला बैठा भी भीड़ में होता है। इसलिए ऊपर-ऊपर की बातों में बहुत आग्रह मत करना; बात भीतर की है; बात गहरे की, गहराई की है।
'जो पुरुष तृप्त है, शुद्ध इंद्रिय वाला है और सदा एकाकी रमण करता है, उसी को ज्ञान का और योगाभ्यास का फल प्राप्त हुआ है !'
यह फल है – कान्सिक्वेन्स । कारण नहीं, कार्य है। सहज फल जाता है। तो जीवन की अंतर्दृष्टि बदलनी चाहिए।
तेन ज्ञानफलं प्राप्तं...।
उसे मिल गया ज्ञान का फल, उसे मिल गया योग का फल ! किसे ? तो परिभाषा की है : तृप्तः ! जो तृप्त है! सब भांति तृप्त है! जिसके जीवन में अतृप्ति का कोई स्वर न रहा ! जिसके मन में किसी चीज की कोई आकांक्षा न रही ! ऐसा कब घटेगा ?
तुमने कहावत सुनी है : 'संतोषी सदा सुखी ।' उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात है : 'सुखी सदा संतोषी।' 'संतोषी सदा सुखी' से ऐसा लगता है कि किसी तरह संतोष कर लो तो सुखी हो जाओगे ।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4