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________________ साल बाद नंदलाल लौटे। लौटे तो उनकी हालत बंगाल में जैसे गरीब चित्रकार होते हैं, पटिए, उन जैसी हो गई थी। वही पुराने तीन साल पहले के कपड़े थे, फटे-पुराने, पहचानना मुश्किल था। शक्ल बदल गई थी, काली हो गई थी। लेकिन वे फिर कुछ चित्र बना कर ले आए थे। और उन्होंने फिर पैर छुए और कहा, आपने ठीक कहा था। इन तीन वर्षों में इतना सीखने को मिला, पटियों के पास। क्योंकि जो ख्यातिनाम चित्रकार हैं, वे तो अपने अहंकार के कारण बनाने लगते हैं। जिनकी कोई ख्याति नहीं, उनके चित्रों में एक निर्दोषता, एक सहजता है - वह सीखने को मिली। आपने खूब मुझे भेज दिया ! आपकी बड़ी कृपा, अनुकंपा ! रवींद्रनाथ ने अवनींद्रनाथ को पूछा कि क्या अब मैं पूछ सकता हूं, मामला क्या था ? चित्र मुझे तो बहुत सुंदर लगा था। अवनींद्रनाथ ने कहा, चित्र मुझे भी बहुत सुंदर लगा था। और आज मैं तुमसे सच कह देना चाह हूं कि मैंने भी चित्र बनाए हैं, लेकिन उसका कोई मुकाबला नहीं। मगर फेंकना पड़ा, मजबूरी थी । क्योंकि नंदलाल से मुझे और भी बड़ी आशा थी । उस दिन अगर मैं कह देता कि ठीक, सुंदर वहीं नंदलाल रुक जाता। जब गुरु ने कह दिया ठीक, सुंदर, हो गई बात- तो विकास अवरुद्ध हो जाता । अगर नंदलाल की प्रतिभा और बड़ी न होती तो मैंने उसे पुरस्कृत किया होता। लेकिन मैं जानता था, और भी छिपा पड़ा है, अभी इसे और खींचा जा सकता है, अभी इसमें से और बड़ा शिखर प्रगट हो सकता है। और यह पाठ धीरे-धीरे गुरु परमात्मा दुख दे, तो भी ... ! उसकी जफा, जफा नहीं, उसको न तू जफा समझ । हुस्न-ए-जहां फरेब की, यह भी कोई अदा समझ । 308 से सीखने के बाद, यही पाठ परमात्मा पर लागू हो जाता है। फिर हुस्न-ए-जहां फरेब की, यह भी कोई अदा समझ । निखार का कोई उपाय समझ । फिर परमात्मा मृत्यु दे तो यह भी फिर परमात्मा पीड़ा दे तो यह भी जीवन की कोई शुरुआत समझ । गुरु के पास जैसा घटे, उसे हंस-हंस कर स्वीकार कर लेने की कला शिष्यत्व है। बेमन से, उदास हो कर, जबर्दस्ती स्वीकार किया तो सारा मजा चला जाता है । स्वीकार होना चाहिए आनंदपूर्ण । जीत अगर किस्मत में नहीं है, मात सही, दिन जो नहीं तो, रात सही हम से जहां तक मुमकिन हो, यह मात ही हंसते-हंसते खा लें। गाहे गाहे अंधियारे में बिजली चमके, गाहे - गाहे हंस लें, गा लें। अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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