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________________ पांचवां प्रश्नः क्या धारणा और स्व-सुझाव या आटो-सजेशन एक ही हैं? धारणा और स्वभाव या बोध में क्या भेद है? रामकृष्ण परमहंस की काली क्या सर्वथा धारणा की बात थी, या उनका अपना अस्तित्व है? विभूति या | था रणा और सुझाव, आटो-सजेशन, भगवान के साथ संवाद क्या संभव नहीं है? । एक ही बात हैं। आटो-सजेशन वैज्ञानिक नाम है धारणा का दोनों में कोई भेद नहीं। और स्वभाव और धारणा बड़ी भिन्न बात है। स्वभाव तो वही है, जो सभी धारणाओं के छूट जाने पर प्रगट होता है। स्वभाव तो वही है, जब तुम्हारे मन से सभी विचार और सभी धारणाएं तिरोहित हो जाती हैं; तब उसका दर्शन होता है। स्वभाव की धारणा नहीं करनी होती। एक संन्यासी मेरे घर मेहमान हुए। तो वे सुबह-सांझ बैठ कर बस एक ही धारणा करते-अहं ब्रह्मास्मि मैं ब्रह्म हूं, मैं देह नहीं; मैं मन नहीं; मैं ब्रह्म हूं-ऐसा दो-चार दिन मैंने उन्हें सुना। मैंने कहा कि अगर तुम हो, तो हो; यह बार-बार क्या दोहराते हो? अगर नहीं हो, तो बार-बार दोहराने से क्या होगा? भ्रांति हो सकती है। बार-बार पुनरुक्ति करने से 'अहं ब्रह्मास्मि,' ऐसा पुनरुक्ति करते रहो, करते रहो तो भ्रांति हो सकती है कि हो गए ब्रह्म; लेकिन यह भ्रांति स्वभाव का दर्शन नहीं है। अगर तुम्हें पता है कि तुम ब्रह्म हो, तो दोहरा क्या रहे हो? अगर कोई पुरुष रास्ते पर दोहराता चले कि मैं पुरुष हूं, मैं पुरुष हूं, तो सभी को शक हो जायेगा कि कुछ गड़बड़ है! लोग कहेंगे: रुको, कुछ गड़बड़ है! यह क्या दोहरा रहे हो? अगर हो तो बात खत्म हो गई। शक है तुम्हें कुछ? __अहं ब्रह्मास्मि, इसको दोहराना थोड़े ही है! यह तो एक बार का उदघोष है। यह तो बोध की एक बार उठी उदघोषणा है। बात खत्म हो गई। यह कोई मंत्र थोड़े ही है। मंत्र तो सझाव ही है। मंत्र शब्द का अर्थ भी सुझाव होता है। इसलिए तो हम सलाह देने वाले को, सुझाव देने वाले को मंत्री कहते हैं। मंत्र यानी सुझाव, बार-बार दोहराना। बार-बार दोहराने से मन पर एक लकीर खिंचती जाती है। और उस लकीर के कारण हमें भ्रांतियां होने लगती हैं। 'रामकृष्ण को जो काली के दर्शन हुए, क्या सर्वथा धारणा की बात थी?' सर्वथा धारणा की बात थी। न कहीं कोई काली है, न कहीं कोई पीली। सब मन की धारणा है। और सब धारणायें गिरनी चाहिए। इसलिए तो जब रामकृष्ण की काली की धारणा गिर गई तो उन्होंने कहा : अंतिम बाधा गिर गई। अपनी ही धारणा थी। और जब रामकृष्ण ने तलवार उठाकर अपनी काली की धारणा को काटा, तो क्या तुम सोचते हो खून वगैरह निकला? कुछ नहीं निकला। धारणा भी झूठी थी, तलवार भी झूठी थी, झूठ से झूठ की टकराहट हुई, कुछ और हुआ नहीं। _ 'विभूति या भगवान के साथ संवाद क्या संभव नहीं है?' नहीं! जो भी संवाद तुम करोगे, वह कल्पना होगी। क्योंकि जब तक तुम हो, तब तक भगवान नहीं; और जब भगवान है, तब तुम नहीं-संवाद कैसे होगा? संवाद के लिए तो दो चाहिए। तुम और भगवान साथ-साथ खड़े होओ, तो संवाद हो सकता है। जब तक तुम हो, तब तक कहां भगवान ? और जब भगवान है, तब तुम कहां? 264 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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