SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बुद्धि रही होगी। क्षत्रियों के गुरु, शूद्र को कैसे स्वीकार करें ! समाज से बहुत घबड़ाये हुए रहे होंगे। समाज- पोषक, और समाज के नियंत्रण में रहे होंगे। क्षुद्र बुद्धि के रहे होंगे । जिस दिन द्रोण ने एकलव्य को इनकार किया कि वह शूद्र था, उसी दिन द्रोण शूद्र हो गए। यह बात हुई ? लेकिन अदभुत था एकलव्य ! गुरु के इनकार की भी फिक्र न की। उसने तो मान लिया था हृदय में गुरु—बात हो गई थी। गुरु के इनकार ने भी उसकी गुरु की प्रतिमा खंडित न की । अनूठा शिष्य रहा होगा । और फिर बेईमानी की हद हो गई : एकलव्य को जब प्रतिष्ठा मिल गई और जब उसकी कुशलता आविर्भाव हुआ, तो द्रोण कंप गए; क्योंकि वे चाहते थे, उनका शिष्य अर्जुन जगत में ख्यातिलब्ध हो। यह भी उनका ही शिष्य था, लेकिन उनकी अस्वीकृति से था; इसमें तो गुरु की बड़ी हार थी। गुरु जिसको सिखा - सिखा कर, प्राणपण लगाकर, सारी चेष्टा में संलग्न थे, वह भी फीका पड़ रहा था इस आदमी के सामने - जिसने सिर्फ मिट्टी की अनगढ़ प्रतिमा बना ली थी अपने ही हाथों से और उसी के सामने अभ्यास कर-करके कुशलता को उपलब्ध हुआ था । उससे अंगूठा मांग लिया । बड़ी आश्चर्य की बात है : दीक्षा देने को तैयार न हुए थे, 'दक्षिणा लेने पहुंच गए ! लेकिन अदभुत शिष्य रहा होगा एकलव्य : जिसने दीक्षा देने से इनकार कर दिया था, उसको उसने दक्षिणा देने से इनकार न किया। एकलव्य जैसा शिष्य ही शिष्य है। उसने तत्क्षण अपना अंगूठा काट कर दे दिया। दांये हाथ का अंगूठा मांगा था - चालबाजी थी, राजनीति थी कि अंगूठा कट जायेगा, तो एकलव्य धनुर्विद्या व्यर्थ हो जायेगी । द्रोण निश्चित ही दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति रहे होंगे। गुरु तो दूर, इनको सज्जन कहना भी कठिन है। यह भी क्या चाल खेली और भोले-भाले शिष्य से खेली ! और फिर भी हिंदू द्रोण को गुरु माने चले जाते हैं, गुरु कहे चले जाते हैं। सिर्फ ब्राह्मण होने से थोड़े ही कोई ब्राह्मण होता है ?. ब्राह्मण था एकलव्य और द्रोण शूद्र थे। उनकी वृत्ति शूद्र की है। उस ब्राह्मण एकलव्य ने काट कर दें दिया अपना अंगूठा, जरा भी ना-नुच न की । यह भी न कहा कि यह क्या मांगते हैं आप? देते वक्त इनकार किया था। तुमसे मैंने कुछ सीखा भी नहीं है। नहीं, लेकिन यह बात ही गलत थी । यह तो उसके मन में भी न उठी। उसने तो कहा, सीखा तुम्हीं है। तुम्हारे इनकार करने से क्या फर्क पड़ता है? सीखा तो तुम्हीं से है ! तुम इनकार करते रहे, फिर भी तुम्हीं से सीखा। देखो तुम्हारी प्रतिमा बनाये बैठा हूं, तो तुम्हारा ऋणी हूं। अंगूठा मांगते हो, अंगूठा प्राण भी मांगो तो दे दूंगा। अंगूठा दे दिया । शिष्य होना तुम पर निर्भर है। यह किसी की स्वीकृति - अस्वीकृति की बात नहीं। तो अगर तुम्हें लगता है कि खूब तुम्हें मिला, तो बात हो गई। इसी भाव में गहरे बने रहना । शिष्य का भाव कभी खोना मत, तो अपूर्व तुम्हारा विकास होगा; मिलता ही चला जायेगा। शिष्यत्व तो सीखने की कला है। 258 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy