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से, दांतों से, मुख से और करों से प्रभु के अंगों को खोदने लगे और उस पर मूत्र करके क्षत ऊपर क्षार डालने लगे। जब उनसे भी कुछ नहीं हुआ, तब क्रोधित होकर भूत जैसा हुआ उस देव ने विशाल दंतमूशल वाला एक हाथी विकुर्वित किया । पैर के पटकने से मानो पृथ्वी को नमाता हो और उसी प्रकार ऊंची की हुई सूंड से मानो आकाश को तोड़ कर नक्षत्रों नीचे गिराना चाहता हो, ऐसा वह गजेन्द्र प्रभु के सन्मुख दौड़ता हुआ आया। उसने दुर्वार सूंड से प्रभु
शरीर को पकड़ कर आकाश में दूर उछाल दिया। फिर प्रभु का शरीर कणकण में बिखर जाय तो अच्छा, ऐसा सोचकर वह दुराशय दांत ऊंचे करके पुनः उनको झेलने के लिए दौड़ा। इस प्रकार झेलने के बाद वह दांतों से बार-बार इस प्रकार प्रहार करने लगा कि जिससे प्रभु की वज्र जैसी छाती में से अग्नि की चिनगारियाँ निकलने लगी । तथापि वह वराक हाथी प्रभु को कुछ भी कर नहीं सका। इसलिए उस दुष्ट ने जाने वैरिणी हो ऐसी एक हथिनी विकुर्वी । उसने अखंड मस्तक से और दांतों से प्रभु को बींध डाला एवं विष के समान अपने शरीर के जल से उस भाग का सिंचन करने लगी। जब वह हथिनी भी प्रभु के शरीर पर रेणु जैसी हो गई, तब उस अधम देव ने मगर के जैसे उग्र दाढ़वाले एक पिशाच के रूप की विकुर्वणा की । ज्वालाओं से आकुलित उसका विकराल मुख प्रज्वलित अग्निकुंड के जैसा भयंकर दृष्टिगत हो रहा था । उसकी भुजाएँ यमराज के गृह के ऊंचे तोरणस्तंभ के सदृश थी । उसकी जँघा और उर प्रदेश ऊंचे ताड़वृक्ष के समान थे । चर्म के वस्त्र धारण करके अट्टहास करता हुआ और किल किल शब्दों से फुत्कार करता हुआ वह पिशाच हाथ में करवत लेकर भगवंत को उपद्रव करने के लिए सम्मुख दौड़ा।
(गा. 201 से 218)
वह भी क्षीण तेल के दीपक के समान जब बुझ गया, तब उस निर्दय देव ने तुरंत ही बाघ / शेर का रूप धारण किया। पूंछ छटा के आच्छोटन से पृथ्वी को फाड़ता हुआ और घुर्राहट के प्रतिछंद से भूमि तथा अंतरिक्ष को फोड़ता हो, ऐसा वह शेर वज्र जैसी दाढ़ों से और त्रिशूल जैसे नखाग्रों से भुवनपति को अव्यग्ररूप से उपद्रव करने लगा । वह भी जब दावानल में दग्ध हुए वृक्ष की भांति निस्तेज हो गया, तब वह अधम देव सिद्धार्थ राजा का रूप धारण करके वहाँ आया। वह बोला-' हे तात! यह अति दुष्कर काम तूने किसलिए आरंभ किया है ? तू यह दीक्षा छोड़ दे। हमारी अवगणना मत करना, तेरा भाई
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
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