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और अपने घर चला गया। तब गोशाले ने प्रभु से कहा कि, 'हे नाथ! क्या स्वामी का धर्म ऐसा होता है ? निर्दोष जैसे मुझे मारते हुए की आपने रक्षा क्यों नहीं की? सिद्धार्थ बोला- 'अरे मूर्ख! तीतर पक्षी की तरह मुखदोष से तू अनेक बार अनर्थ भोगता है।'
(गा. 439 से 444) वहाँ से विहार करके प्रभु कुमार सन्निवेश में आए। वहाँ चंपकरमणीय उद्यान में प्रतिमा धारण करके ध्यान में लीन हो गए। उस गांव में धन धान्य से समृद्धिवाला कूपन नाम का कुंमार रहता था। मदिरा के कीड़े की तरह उसे मदिरा पर अति प्रीति थी। उस समय उसकी शाला में मुनिचंद्राचार्य नाम के एक पार्श्वनाथ प्रभु के बहुश्रत शिष्य अनेक शिष्यों के साथ वहां रहते थे। वे अपने शिष्य वर्द्धन नाम के सूरि को गच्छ में मुख्य रूप से स्थापित करके जिनकल्प का अत्यन्त दुष्कर प्रतिकर्म कर रहे थे। तप, सत्त्व, श्रुत, एकत्व एवं बल इस प्रकार पांच प्रकार की तुलना करने के लिए वे, समाधिपूर्वक उपस्थित हुए थे। इधर गोशालक ने प्रभु को कहा कि, हे नाथ! अभी मध्याह्न का समय है, अतः चलो, गांव में भिक्षा लेने को जावें।' सिद्धार्थ ने कहा 'आज मेरे उपवास है।' तब क्षुधातुर हुआ गोशाला गांव में भिक्षा के लिए गया। वहाँ उसने चित्रविचित्र वस्त्र को धारण करने वाले एवं पात्रादिक को रखने वाले पार्श्वनाथ जी के पूर्वोक्त शिष्यों को देखा। तो उसने पूछा कि, आप कौन है ? वे बोले कि- 'हम श्री पार्श्वनाथ के निर्ग्रन्थ शिष्य हैं।' गोशाला ने हँसते हँसते कहा कि “मिथ्या भाषी आपको धिक्कार है। आप वस्त्रादिक ग्रंथी को धारण करने वाले हो, और फिर भी निर्ग्रन्थ काहे के? केवल आजीविका के लिए ही इस पाखंड की कल्पना करी लगती है। वस्त्रादिक संग से रहित और शरीर में भी अपेक्षा रहित जैसे मेरे धर्माचार्य हैं, वैसे निर्ग्रन्थ होने चाहिए।" वे जिनेन्द्र को जानते नहीं थे, इसलिए गोशालक के इस प्रकार के वचन सुनकर बोले कि 'जैसा तू है, वैसे निर्ग्रन्थ होने चाहिए।" क्योंकि वे स्वयमेव लिंग ग्रहण करने वाले लगते हैं। क्षुधातुर हुए गोशाला ने उनके ऐसे वचनो से शाप दिया कि, 'यदि मेरे गुरु का तपतेज हो तो यह तुम्हारा उपाश्रय जल जावे' वे बोले कि 'तेरे वचनों से हम कोई जलेंगे नहीं। गोशाला शर्मिंदा होकर प्रभु के पास आकर कहने लगा कि, 'आज मैंने आपके तपस्वीपने की निंदा करनवाले सग्रंथ साधुओं को देखा।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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