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से उन्होंने वंदना की। पश्चात् पुष्प को कहा कि, “अरे मूर्ख! तू शास्त्र की निंदा क्यों कर रहा है ? शास्त्रकारों ने कुछ भी मृषाभाषण किया हुआ नहीं है। तू तो अभी इन प्रभु के बाह्य लक्षणों को ही जानता है, आंतरिक लक्षणों को नहीं जानता, परंतु इन प्रभु का मांस और रुधिर दूध की तरह उज्जवल हैं। इनके मुखकमल का श्वास कमल की खुशबू जैसा सुगन्धित है, इनका शरीर पूर्ण निरोगी और मल तथा पसीने से रहित है। ये तीन जगत् के स्वामी, धर्मचक्री, जगतहितकारी और विश्व को अभय प्रदाता, सिद्धार्थ राजा के नंदन वीर प्रभु हैं। चौंसठ इंद्र भी इनके सेवक हैं, तो इनके समक्ष चक्रवर्ती भी क्या है ? कि जिनसे तू फल की इच्छा करता है। ये प्रभु वर्षीदान देकर भवसागर से तिरने
की इच्छा से राज्य का त्याग करके, दीक्षा लेकर अश्रांत रूप से विहार कर रहे हैं। शास्त्रों में कथित लक्षण ठीक ही है। इसलिए तू किंचित्मात्र भी खेद मत कर। मैं तुझे इच्छित फल दूंगा, क्योंकि इन प्रभु का दर्शन कदापि निष्फल नहीं होता।'' इस प्रकार कहकर उस पुष्प नैमित्तिक को इच्छित फल देकर, प्रभु को नमन कर इंद्र पुनः अपने स्थान पर चले गये।
(गा. 348 से 369) वीरप्रभु कायोत्सर्ग पार कर चरणन्यास द्वारा पृथ्वी को पवित्र करते हुए अनुक्रम से राजगृही नगरी में आए। उस नगर के बाहर नालंदा नामक भूमिभाग में किसी बुनकर की विशाल शाला में प्रभु पधारे। वहाँ वर्षाकाल निर्गमन करने के लिए उस बुनकर से प्रभु ने अनुमति ली। वहाँ मासक्षमण करते हुए उस शाला के एक भाग में रहे।
(गा. 370 से 372) इस समय में मंखली नाम का कोई मंख्य (चित्रकला जानने वाला भिक्षाचर विशेष) था। उसके भद्रा नामकी स्त्री थी। वे दोनों चित्रपट लेकर पृथ्वी पर घूमते थे। वे शरवण गांव में आए। वहाँ भद्रा ने ब्राह्मण की एक बड़ी गौशाला में पुत्र को जन्म दिया। गोशाला में प्रसव होने से, उसका गोशालक नाम पड़ गया। अनुक्रम से वह युवावस्था को प्राप्त हुआ। उसने अपने पिता का धंधा सीख लिया। यह गोशालक स्वभाव से ही कलहकारी था। माता पिता के वश में रहता नहीं था, जन्म से ही लक्षणहीन होने पर भी उत्कट विचक्षण था। एक बार वह माता पिता से कलह करके, चित्रपट लेकर भिक्षा के लिए निकल पड़ा। घूमता
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)