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स्त्रियाँ काम ज्वर के औषध रूप उनके अंग के संग की याचना करने लगीं। दीक्षा के दिन से लेकर चार माह तक प्रभु ने पर्वत की तरह स्थिर रहकर संबंधित उपसर्गों को सहन किया।
(गा. 46 से 48) किसी समय प्रभु विहार करते करते मोराक सन्निवेश में आए। वहाँ दुइज्जंतक जाति के तापस रहते थे। उन तापसों का कुलपति प्रभु के पिताश्री का मित्र था। वह प्रभु के पास आया। पूर्व के अभ्यास से प्रभु ने उससे मिलने के लिए उसके सामने हाथ फैलाया। कुलपति ने वहाँ रहने की प्रार्थना की। तब सिद्धार्थ राजा के पुत्र महावीर एकरात्रि की प्रतिमा धारण करके वहाँ रहे। प्रातः काल में विहार करने की इच्छा करते हुए प्रभु को कुलपति ने विज्ञप्ति की, कि 'इस एकांत स्थान में आप वर्षाकाल निर्गमन करना।' यद्यपि प्रभु वीतरागी थे, परंतु उनके आग्रह से उनके वचनों को स्वीकार करके शंख की भांति निरंजन रूप से वहाँ से अन्यत्र विहार करने चल दिये। वायु की तरह प्रतिबंध रहित और कमलपत्र के सदृश निर्लिप्त प्रभु ने सर्वत्र विहार करते हुए ग्रीष्म काल व्यतीत किया। पश्चात् अपने पिता के मित्र उस कुलपति को दिये वचन का स्मरण करके चातुर्मास करने के लिए मोराक सन्निवेश में पुनः पधारे। वर्षाऋतु में मेघ गर्जना करके धारागृह की तरह अखंड धारा से बहने लगा एवं हंस के समान मुसाफिर अपने अपने स्थान में जाने लगे। इस समय पूर्वोक्त कुलपति ने प्रभु के साथ भतीजेपने सा स्नेह संबंध हृदय में चिंतन करके तृण से आच्छदित करा एक घर प्रभु को रहने के लिए अर्पित किया। उसमें बड़वाई वाले वृक्ष के समान आजानु प्रलंब भुजा वाले प्रभु मन को नियंत्रित करके रहे। उस समय ग्रीष्म ऋतु के महात्म्य से जिसके सर्व तृण शुष्क हो गये हैं ऐसे एवं जिसमें नवीन वर्षाऋतु के कारण अभी नए तण अंकुरित नहीं हुए थे, इस कारण ग्राम की गायें तापसों के झोंपड़ियों के तृण को खाने के लिए दौड़ने लगी। तब निर्दय तापस यष्टियाँ (लकड़ियों) से गायों को मार कर भगाने लगे। जब उन्होंने उन गायों को मार भगा दी, तब वे गायें जिसमें प्रभु रहते थे, उस झोंपड़ी को खाने लगी। “प्रभु तो वहाँ स्तंभ की तरह स्थिर रहते थे, अतः उनको वहाँ किसका भय लगे?' यह देख तापस लोग प्रभु के ऊपर क्रुद्धित होकर अंदर अंदर बोलने लगे कि 'जिस प्रकार हम हमारी झोपड़ियों का रक्षण करते है, वैसे यह मुनि तो उसकी झोंपड़ी
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)