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प्रभु का स्नात्र महोत्सव करने वहाँ आ पहुँचे। आभियोगिक देव स्नात्र के लिए तीर्थजल ले आए। इस समय भक्ति से कोमल चित्तवाले शक्र इंद्र को ‘इतना सारा जल का प्रवाह प्रभु किस प्रकार सहन कर सकेंगे? ऐसी शंका उत्पन्न हुई। तब इंद्र की आशंका को दूर करने के लिए प्रभु ने सहजता से वाम (बांये) चरण के अंगुष्ठ से मेरुगिरि को दबाया। इससे शीघ्र ही मानो प्रभु को नमने के लिए ही हो, वैसे मेरु पर्वत के शिखर नम गये। कुलगिरि जैसे उनके नजदीक आ रहे हो, वैसे चलायमान हो गये। समुद्र मानो प्रभु का स्नात्र करता हो वैसे उछलने लगा और पृथ्वी जैसे प्रभु के पास नृत्य करना हो, इस प्रकार उन्मुख हो गई
और कांपने लगी। इस प्रकार का उत्पात देखकर 'यह क्या हुआ? ऐसी चिंता करते हुए इंद्र ने अवधिज्ञान के उपयोग से देखा तो सर्व प्रभु के पराक्रम की लीला उसे ज्ञात हुई। तब इंद्र ने कहा-'हे नाथ! असामान्य ऐसा आपका माहात्म्य मेरे जैसा सामान्य प्राणी किस प्रकार जान सकता है ? इसलिए मैंने जो इस प्रकार विपरीत चिंतन किया, वह मेरा दुष्कृत्य मिथ्या होवे।" ऐसा कहकर इंद्र ने प्रभु को प्रणाम किया। पश्चात् आनंद सहित अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बजाते हुए इंद्रों ने सुगंधित और पवित्र तीर्थ जल से अभिषेक महोत्सव किया। उस अभिषेक के जल को सुर, असुर, मनुष्य और नागकुमार आदि वंदन करने लगे एवं बराम्बार सर्व प्राणियों के अगों पर छांटने लगे। प्रभु के स्नात्र जल के साथ मिली मृत्तिका (मिट्टी) भी वंदनीय हो गई। क्योंकि “गुरु के संग से लघु की भी गौरवता होती है।' तब सौधर्मेन्द्र ने प्रभु को ईशानेन्द्र के उत्संग में देकर स्नान, अर्चन और आरात्रिक (आरती) करके इस प्रकार स्तुति करने लगे।
__ (गा. 53 से 70) “अर्हन्त, भगवन्त, स्वयंसंबुद्ध, विधाता और पुरुषों में उत्तम ऐसे आदिकर तीर्थंकर रूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ। लोक में प्रदीप रूप, लोक के उद्योतकर, लोक में उत्तम, लोक के अधीश, और लोकहितंकर ऐसे आपको मैं नमन करता हूँ। पुरुषों में श्रेष्ठ पुंडरीक कमल रूप, सुख को देने वाले, पुरूषों में सिंह के समान और पुरुषों में मदगंधी गजेन्द्र रूप ऐसे आपको नमस्कार हो। चक्षु को और अभय को देने वाले, बोधिदायक, मार्गदेशक, धर्मदायक, धर्मदेशक
और शरणदायक ऐसे आपको नमन करता हूँ। धर्म के चक्रवर्ती, छद्मस्थपन को निवृत्त करने वाले, सम्यग्दर्शन धारी ऐसे आपको नमस्कार हो। जिन और जापक अर्थात् राग द्वेष की जीत लिया है एवं दूसरों को जिताने वाले, स्वयं
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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