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ग्रंथकर्ता की प्रशस्ति
महामुनि जंबूस्वामी के प्रभव नाम के शिष्य हुए, उनके शिष्य यशोभद्र हुए, उनके संभूति एवं भद्रबाहू दो उत्तम शिष्य हुए। उनमें जो संभूति मुनि थे, उनके चरणकमल में भ्रम रूप श्री स्थूलभद्र नाम के शिष्य हुए। वंश परंपरा से आए चौदह पूर्व रूपी रत्न भंडार जैसे उन स्थूल भद्र मुनि के महर्षि महागिरि नामके सर्व से बड़े शिष्य हुए जो कि स्थिरता में मेरु समान एवं विशिष्ट लब्धियों से युक्त थे। दूसरे शिष्य दश पूर्वधर, मुनियों में श्रेष्ठ सुहस्ती नाम के हुए। जिनके चरणकमल की सेवा से प्रबुद्ध रूपी विपुल समृद्धि प्राप्त करके संप्रति नाम के राजा ने इस भरतार्द्ध में प्रत्येक गांव में, प्रत्येक आकर में चारों तरफ इस प्रकार समग्र पृथ्वी मंडल को जिनचैत्यों से मंडित कर दिया। उस आर्य सुहस्ती महामुनि के सुस्थित सप्रतिबुद्ध नाम के शिष्य हुए जो कि समतारूपी धनवाले, दश पूर्वधर और संसार रूप महावृक्ष को भंग करने में हस्ती के समान महर्षियों ने जिनके चरणों की सेवा की है ऐसे उस मुनि से कोटिक नामक एक महान गण लवण समुद्र तक प्रसरित हुआ। उस कोटिक गण में कितनेक उत्तम साधु हुए। अंतिम दशपूर्वधर लब्धि ऋद्धि से संपन्न तुंबवनपत्तन में जन्में वज्र समान वज्रसूरि हुए। उनके समय में जब प्रलय काल के जैसा भयंकर अकाल (१२ वर्ष) का पड़ा, तब निःसीम तलवाले निधि रूप उन वज्रसूरि ने चारों तरफ से भयभीत संघ को विद्या से अभिमंत्रित वस्त्र पर बिठाकर अपने कर कमल से उठाकर आकाशमार्ग में सुभिक्ष के धामरूप महापुरी में ले गये थे। उन वज्रसूरि से कोटिक गण रूप वृक्ष के अंदर से उच्च नागरिका प्रमुख तीन शाखा वज्री नामक चौथी शाखा निकली। उस वज्रशाखा में से मुनि रूप भ्रमर जिसमें लीन हुए हैं, ऐसी चंद्र नामका पुष्प के गुच्छ जैसा गच्छ प्रवर्तमान हुआ। उस गच्छ में
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)