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धर्मतत्त्व नष्ट हो जाने पर हाहाकार हो जाएगा । पशु की भांति माता पुत्र की व्यवस्था। मनुष्यों में भी रहेगी नहीं । रात्रि - दिवस कठोर एवं अत्यन्त रजवाला अनिष्ट पवन चलता रहेगा । इसी प्रकार दिशाएँ धूम्रवर्णी होने से भयंकर लगेगी । चंद्र से अत्यन्त शीतलता प्रसरेगी एवं सूर्य अति उष्णता से तपेगा । अति शीत और अति उष्णता से पराभव प्राप्त मनुष्य अत्यन्त क्लेश को प्राप्त होंगे। उस समय विरस हुए मेघ क्षार, आम्ल, विष, अग्नि और वज्रमय होकर उस उस रूप से वृष्टि करेंगे। फलस्वरूप लोगों में कास, श्वास, शूल, कष्ट, कूष्ट, जलोदर, ज्वर शिरोव्यथा एवं दूसरे भी कितनेक रोग उत्पन्न होंगे । जलचर, खेचर, स्थलचर तिर्यंच महादुःख से रहेंगे । क्षेत्र, वन, आराम, लता, वृक्ष और घास का क्षय हो जाएगा। वैताढ्यगिरि, ऋषभकूट, एवं गांगा तथा सिंधु नदी के अतिरिक्त दूसरे सर्व पर्वत खड्डे एवं नदियाँ सपाट हो जाएगी । भूमि अंगारे के भाठे जैसी भस्मरूप होगी। साथ ही किसी स्थान पर अतिधूल वाली और किसी स्थान पर अत्यन्त कीचड़ वाली होगी। मनुष्यों का शरीर एक हाथ के प्रमाणवाले और अशुभवर्ण वाले होंगे। रोगार्त्त, क्रोधी, लम्बी दिखने वाली चपटी नासिका वाली, निर्लज्ज और वस्त्र रहित होगी । पुरुषों का आयुष्य उत्कृष्ट बीस वर्ष का और स्त्रियों का सोलह वर्ष का होगा । उस समय स्त्री छः वर्ष की वय में गर्भ धारण करके दुःखपूर्वक प्रसव करेगी। सोलह वर्ष में तो बहुत पुत्र, पौत्रवाली हो जाएगी और वृद्धा हो जाएगी । वैताढ्यगिरि के दोनों ओर नव नव बिल होंगे, कुल बहत्तर बिल हैं, उनमें वे रहेंगे । तिर्यञ्च जाति मात्र बीज रूप में ही रहेगी। उस विषमकाल में सर्व मनुष्य और पशु मांसाहारी, क्रूर और निर्दयी निर्विवेकी
| गंगा और सिंधु का प्रवाह बहुत से मत्स्य वाला और मात्र रथ के पहिये जितने होंगे। उसमें से लोग रात्रि में मछली निकाल कर स्थल पर रख देंगे, जो कि दिन में सूर्य के ताप से पक जाएंगे। वे रात्रि में उसका भक्षण करेंगे। इस प्रकार उनका निर्वाह चलेगा। क्योंकि उस समय दूध, दहीं आदि रसवाले पदार्थ, पुष्प, फल या आम्र आदि कुछ भी उपलब्ध नहीं होंगे। साथ ही शय्या आसनादि भी रहेगे नहीं । भरत, ऐरावत नाम के दसों ही क्षेत्र में इसी प्रकार पहला दुषम दुःषमा काल में और बाद में दूसरा दुःषम काल में दोनों इक्कीस हजार तक रहेंगी। अवसर्पिणी में जैसे अन्त्य (छट्ठा) और उपांत्य (पांचवाँ ) ये दो आरे होते हैं, वैसे ही उत्सर्पिणी में दुःषमा दुःषमा काल (अवसर्पिणी में छठे जैसा पहला आरा) के अंत समय में भिन्न भिन्न पांच जाति के मेघ सात सात
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व)
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