________________
होकर नाचने लगे, हँसने लगे और जैसे तैसे बोलने लगे। मात्र राजा और मंत्री ये दो ही अच्छे रहे।
(गा. 58 से 65) पश्चात् अन्य सामंतादि ने राजा और मंत्री को अपने से विपरीत प्रवृति वाले देखकर निश्चय किया कि 'अवश्य ही राजा और मंत्री दोनों पागल हो गए लगते हैं। क्योंकि वे अपने से विलक्षण आचार वाले हैं। इसलिए उनको उनके स्थान से हटाकर दूसरे राजा और मंत्री को अपन स्थापित करें। उनका यह विचार मंत्री को ज्ञात हुआ। उसने इसे राजा को ज्ञापित किया। तब राजा ने मंत्री से पूछा अपने को अब क्या करना चाहिए। इन लोगों से अपनी आत्मरक्षा कैसे करनी? क्योंकि जनवृंद राजा के समान है।" तब मंत्री ने कहा- हे देव! अपने को भी उनके साथ पागल के समान वर्तन करना चाहिये, इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है तब राजा व मंत्री कृत्रिम पागल बनकर उन सबके मध्य रहने लगे एवं अपनी संपत्ति का भोग करने लगे। जब पुनः शुभ समय पर शुभ वृष्टि हुई, तब उस नवीन वृष्टि के जल का पान करके सभी मूल प्रकृतिवाले पूर्ववत् स्वस्थ हो गये। इस प्रकार दुःषमा काल में गीतार्थ मुनि भी वेशधारियों के साथ उनके जैसे होकर रहेंगे। परंतु भविष्य में अपने समय की इच्छा रखा करेंगे। इस प्रकार अपने स्वप्नों के फल सुनकर महाशय हस्तिपाल राजा ने प्रतिबुद्ध होकर दीक्षा अंगीकार की। वे अनुक्रम से मोक्ष पधारे।
(गा. 66 से 73) इसी समय गणधर गौतम ने भगवंत को प्रणाम करके कहा कि “हे स्वामिन्! तीसरे आरे के अंत में भगवान् वृषभस्वामी हुए एवं चौथे आरे में श्री अजितनाथ आदि तेवीस परमात्मा हुए। जिनमें प्रभु आप अंतिम तीर्थपति हुए। इस प्रकार इस अवसर्पिणी में जो बना वह सब जाना देखा। अब दुःषमा नामक पंचम आरे में जो कुछ होने वाला है, वह सब प्रसन्न होकर प्रभु फरमा।' वीर प्रभु ने फरमाया, “हे गौतम! मेरे निर्वाण के तीन वर्ष और सार्द्ध आठ महिनों के पश्चात् पंचमआरा प्रवेश करेगा। मेरे निर्वाण के उन्नीस सौ चोदह वर्ष के पश्चात् पाटलीपुत्र नगर के म्लेच्छ कुल में चैत्र मास की अष्टमी के दिन विष्टि में कल्की, रुद्र और चतुर्मुख ऐसे तीनों नामों से विख्यात राजा होगा। उस समय ही मथुरापुरी में पवन से जीर्ण वृक्ष के समान रामकृष्ण का मंदिर अकस्मात् ही
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
315