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के आक्षेप के लिए डंका समझना अर्थात् इस बाबत में किसी की परीक्षा ही न करना, ऐसा कथन सिद्ध होगा । अब यदि सर्व भाव के विषय में ज्ञातृत्व रूप कर्त्तव्य कहते हो तो वह हमकों भी मान्य है, क्योंकि सर्वज्ञ दो प्रकर के होते हैं । वे एक मुक्त और दुसरे देहधारी । हे नाथ! आप जिन पर प्रसन्न होते हैं, बताए अनुसार अप्रमाणिक ऐसे सृष्टि के कर्तृत्व वाद को त्याग करके अपके शासन में रमण करते हैं । "
ऊपर
(गा. 5 से 12 )
इस प्रकार स्तुति करके इंद्र ने विराम लिया, तब अपापापुरी के नरेश हस्तिपाल ने निम्न प्रकार से स्तुति की
(गा. 13)
हे स्वामिन्! विशेषज्ञ ऐसे आपकी कोमल विज्ञापना ही करनी, इसमें कुछ नहीं है । इसलिए अंतः करण की विशुद्धि के लिए कुछ कठोर विज्ञापना करता हूँ। हे नाथ! आप पक्षी, पशु या सिंहादि वाहन पर जिसका देह स्थित हैं, वैसे नहीं है। इसी प्रकार आपके नेत्र मुख और गात्र के विकार द्वारा विकृत आकृति भी नहीं है। और फिर आप त्रिशूल, धनुष और चक्रादि शस्त्रों से युक्त करपल्लव वाले भी नहीं है । इसी के साथ स्त्री के मनोहर अंगों का आलिंगन देने में तत्पर हों, ऐसे भी नहीं हैं । फिर निंदनीय आचरणों द्वारा शिष्ट जनों को जिन्होंने कंपायमान कर दिया है, ऐसे भी नहीं है। साथ ही कोप एवं प्रासाद द्वारा जिन्होंने नर अमरों को विडंबित किया हो, ऐसे भी नहीं है'। फिर इस जगत् की उत्पत्ति, पालन और नाश करने में आदर वाले भी नहीं हैं । एवं नृत्य, हास्य और गायनादि उपद्रवों से उपद्रवित आपकी स्थिति भी नहीं हैं । तथा प्रकार की स्थिति होने से परीक्षकों को आपकी देवरूप में प्रतिष्ठा किस प्रकार से करनी ? क्योंकि आप तो सर्व देवों की अपेक्षा से सर्वथा विलक्षण हो । हे नाथ! जल के प्रवाह के साथ पत्ते, तृण और काष्टादि भी बह जाते हैं, तो वह युक्तियुक्त ही है। परंतु बाढ़ में कोई बह कर आया यह कहना किस युक्ति से संगत माना जा सके ? परंतु हे स्वामिन्! ऐसे मंदबुद्धि वालों के परीक्षण से क्या काम ? और मेरे भी उस प्रयास से क्या ? क्योंकि सर्व संसारी जीवों के रूप से विलक्षण ऐसे ही आपके लक्षण हैं, उसकी बुद्धिमान् प्राणी परीक्षा करें। यह सारा जगत् क्रोध, लोभ और भय से आक्रांत है, अतएव आप विलक्षण हैं । परंतु हे प्रभो! आप
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व )
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