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कुणिक राजा की मृत्यु हुई। उसके प्रधान पुरुषों ने उसके पुत्र उदायी को राज्य सिंहासन पर आसीन किया। उदायी राजा ने प्रजा का न्यायमार्ग से प्रतिपालन किया एवं पृथ्वी पर अखंडरूप से जैन शासन का प्रर्वत्तन किया। अपने स्थान पर ही रहे हुए ऐसे उस प्रतापी राजा के प्रताप रूप सूर्य को सहन नहीं करने वाले शत्रुगण उलूक पक्षी की तरह गिरिगुहा में घुस गए। उनको स्वचक्र और परचक्र का भय कभी भी उत्पन्न नहीं हुआ। परंतु वह हमेशा श्रावकव्रत के खंडन से भयभीत होता रहा। चार पर्वणि (अष्टमी चौदस पूनम अमावस्य) में चतुर्थादि (उपवासादि) तप द्वारा शुद्धि को वहन करके वह पौषधगृह में सामायिक लेकर स्वस्थ रूप से रहता था। अरिहंत देव और साधु गुरु इतने शब्दों का ध्यान मंत्राक्षर के समान रात्रि दिवस उसके हृदय में से कभी भी हटते नहीं थे। वह उदायनउदायी राजा दयालु होने पर भी अखंडित आज्ञा से सर्वदा त्रिखंड पृथ्वी पर राज्य करता था। वह सद्बुद्धि वीर श्री वीर प्रभु की अमृत तुल्य धर्म देशना का बारम्बार आचमन करके अपनी आत्मा को पवित्र करता था।
___(गा. 426 से 434) केवलज्ञान की उत्पत्ति से लेकर विहार करते हुए चरम तीर्थंकर श्री वीरप्रभु के चौदह हजार मुनि, छत्तीस हजार शांत हृदय वाली साध्वियाँ, तीन सौ चौदहपूर्वधारी श्रमण, तेरहसौ अवधिज्ञानी, सात सौ वैक्रिय लब्धिधारी, उतने ही केवली और उतने ही अनुत्तर विमान में जाने वाले, पांचसौ मनःपर्यवज्ञानी, चौदह सौ वादी, एक लाख उनसठ हजार श्रावक और तीन लाख अठारह हजार श्राविकाओं का परिवार था।
(गा. 435 से 439) गौतम और सुधर्मा गणधर के अतिरिक्त अन्य नौ गणधर के मोक्ष सिधा जाने के पश्चात् सुर असुर और नरेश्वरों से जिनके चरण कमल सेवित हैं, ऐसे श्री वीर भगवंत प्रांते अपापापुरी में पधारें।
(गा. 440) दशम पर्व का बारवाँ सर्ग समाप्त
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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