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उपवन हैं। ये स्नान करने की सुंदर वापिकाएँ हैं। यह सिद्धायतन है, यह सुधर्मा नामक महासभा है। यह स्नान गृह है, अव आप स्नान गृह को अलंकृत करें कि जिससे हम आपका अभिषेक करें। इस प्रकार देवताओं के आग्रह से देव स्नानगृह में गए। वहाँ स्थित चरण पीठ वाले सिंहासन पर विराजमान हुए। देवताओं ने हाथों में कुंभ लेकर दिव्य जल द्वारा उनका अभिषेक किया। पश्चात् वे किंकर देवता उनको अलंकार गृह में ले गए। वहाँ उन्होंने दो देवदूष्य वस्त्र, अंगराग और मुकुट आदि दिव्य आभूषण धारण किये। वहाँ से वे व्यवसाय सभा में गए। वहाँ अपने कल्प के पुस्तक का वाचन किया। वहाँ स्थित एक सौ आठ जिन प्रतिमाओं का अर्चन, वंदन, स्तवना करके पश्चात् अपनी सुधर्मा सभा में आकर संगीत कराया। इस प्रकार अपने उस विमान में रहकर यथारुचि भोग भोगने लगे।
(गा. 231 से 282) समकित गुण रूप आभूषण वाले वे देव अर्हन्त के कल्याणकों के समय महाविदेह आदि क्षेत्रों में गये और वहाँ जिनेश्वर भगवंतों को वंदना की। इस प्रकार अंत समय में तो प्रत्येक बात में विशेष रूप से शोभित होते हुए उस देव ने वहाँ बीस सागरोपम की आयुष्य पूर्ण की। अन्य देवतागण तो जब छः महिने की आयुष्य अवशेष रहने पर मोह ग्रसित होते हैं, जबकि तीर्थंकर होने वाले देवता तो पुण्योदय अत्यंत नजदीक आया होने से किंचित्मात्र भी मोहित नहीं होते।
(गा. 283 से 284) श्री हेमचंद्रसरि विरचित त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र महाकाव्य में दशम पर्व के श्री महावीर चरित्र में पूर्वभव वर्णन नामक प्रथम सर्गः।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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