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धारण किया हो तो मन वचन काया से वोसिराता हूँ। पुत्र, स्त्री, मित्र, धन, धान्य, गृह और अन्य किसी भी पदार्थ में मेरी ममता रही हो तो उन सर्व को वोसिराता हूँ। इंद्रियों से पराभव पाकर मैंने रात्रि में चतुर्विध आहार किया हो तो उनकी मन-वचन-काया से निंदा करता हूँ। क्रोध, लोभ, राग, द्वेष, कलह, पिशुनता (चुगली), परनिंदा, अभ्याख्यान (कलंक) और अन्य जो कोई चारित्राचार विषयक दुष्ट आचरण किया हो, उसको मैं मन, वचन, काया से वोसिराता हूँ। बाह्य या अभ्यन्तर तप करते हुए मुझे मन-वचन-काया से जो कोई अतिचार लगा हो, उस की मैं मन, वचन, काया से निंदा करता हूँ। धर्मानुष्ठान में मैंने जो कुछ भी वीर्य को गोपन किया हो तो उस वीर्याचार की भी मैं मन-वचन-काया से निंदा करता हूँ। मैंने किसी को मारा हो, दुष्ट वचन कहे हो, किसी का कुछ हरण कर लिया हो अथवा कुछ अपकार किया हो, तो वे सब मुझे क्षमा करें। यदि कोई मेरे मित्र या शत्रु हों, स्वजन या परजन हो तो वे भी मुझे क्षमा करें। अब मैं सभी पर समत्व भाव रखता हूँ। तिर्यंचपने में तिर्यंच, नारकीपने में नारक, देवपने में देव, मनुष्यपने में जिन मनुष्यों को मैंने दुःखी किया हो तो वे सब भी मुझे क्षमा करें। मैं उनको खमाता हूँ। अब मुझे सभी के साथ मैत्री है। जीवन, यौवन, लक्ष्मी, रूप एवं प्रियसमागम ये सब वायु से प्रेरित समुद्र के तरंग सदृश है। व्याधि, जन्म, जरा और मृत्यु से ग्रसित प्राणियों को श्री जिनोदित धर्म के बिना अन्य कोई शरण नहीं है। सभी जीव स्वजन और परजन है, तो उसमें कौन किंचित् भी प्रतिबंध करे ? प्राणी अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त करता है। अकेला ही सुख और दुःख का अनुभव करता है। प्रथम तो इस आत्मा से यह शरीर अन्य है। देह, धन, धान्य तथा बंधुओं से यह जीव अन्य (भिन्न) है। फिर भी उसमें मूर्ख जन वृथा ही मोह रखते हैं। चर्बी, रुधिर, मांस, अस्थि, ग्रंथी, विष्टा और मूत्र से भरे इस अशुचि के स्थान रूप शरीर में कौन-बुद्धिमान पुरुष मोह रखे? यह शरीर किराये के घर की तरह अंत में अवश्य ही छोड़ देना है। अर्थात् उसका कितना ही लालन पालन किया हो, तो भी वह नाशवंत है। धीर हो या कायर हो सर्व प्राणियों को अवश्यमेव मरना तो है ही। परंतु बुद्धिमान् पुरुषों को इस प्रकार मरना चाहिये कि पुनः मरना ही न पड़े। मुझे अरिहंत प्रभु का शरण हो, सिद्ध प्रभु का शरण हो, साधुओं का शरण हो और केवली प्ररुपित धर्म का शरण होवे। मेरी माता श्री जिनधर्म, पिता गुरु, सहोदर साधु एवं साधर्मिक मेरे बंधु हैं। इसके अतिरिक्त
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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